अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 22
याव॑ती॒र्भृङ्गा॑ ज॒त्वः कु॒रूर॑वो॒ याव॑ती॒र्वघा॑ वृक्षस॒र्प्यो बभू॒वुः। तत॒स्त्वम॑सि॒ ज्याया॑न्वि॒श्वहा॑ म॒हांस्तस्मै॑ ते काम॒ नम॒ इत्कृ॑णोमि ॥
स्वर सहित पद पाठयाव॑ती: । भृङ्गा॑: । ज॒त्व᳡: । कु॒रूर॑व: । याव॑ती: । वघा॑: । वृ॒क्ष॒ऽस॒र्प्य᳡: । ब॒भू॒वु: । तत॑: । त्वम् । अ॒सि॒ ।ज्याया॑न् । वि॒श्वहा॑ । म॒हान् । तस्मै॑ । ते॒ । का॒म॒ । नम॑: । इत् । कृ॒णो॒मि॒ ॥२.२२॥
स्वर रहित मन्त्र
यावतीर्भृङ्गा जत्वः कुरूरवो यावतीर्वघा वृक्षसर्प्यो बभूवुः। ततस्त्वमसि ज्यायान्विश्वहा महांस्तस्मै ते काम नम इत्कृणोमि ॥
स्वर रहित पद पाठयावती: । भृङ्गा: । जत्व: । कुरूरव: । यावती: । वघा: । वृक्षऽसर्प्य: । बभूवु: । तत: । त्वम् । असि ।ज्यायान् । विश्वहा । महान् । तस्मै । ते । काम । नम: । इत् । कृणोमि ॥२.२२॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
ऐश्वर्य की प्राप्ति का उपदेश।
पदार्थ
(यावतीः) जितनी (कुरूरवः) कुत्सित ध्वनिवाली (भृङ्गाः) भ्रमरी आदि और (जत्वः) चिमगादर आदि और (यावतीः) जितनी (वघाः) टिड्डी आदि और (वृक्षसर्प्यः) वृक्षों पर रेंगनेवाली [कीटादि पङ्कियाँ] (बभूवुः) हुई हैं (ततः) उस से (त्वम्) तू... म० १९॥२२॥
भावार्थ
वह परमात्मा छोटे-छोटे जीवों की पहुँच से भी बाहर है ॥२२॥
टिप्पणी
२२−(भृङ्गाः) भृञः किन्नुट् च। उ० १।१२५। डुभृञ् भरणे-गन्, कित् नुट् च। भ्रमर्य्यः (जत्वः) फलिपाटिनमि०। उ० १।१८। जनी प्रादुर्भावे-उ, नस्य तः। जतुकाः। निशाचरपक्षिविशेषाः (कुरूरवः) रूशातिभ्यां क्रुन्। उ० ४।१०३। कु+रु शब्दे−क्रुन्, छान्दसो दीर्घः। कुत्सितध्वनयः (वघाः) अ० ६।५०।३। अन्येष्वपि दृश्यते। पा० ३।२।१०१। अव+हन-हिंसागत्योः-ड, टाप्। वष्टि भागुरिरल्लोपम्-अवशब्दस्य अलोपः। अवहननशीलाः। कीटादयः (वृक्षसर्प्यः) वृक्षेषु सर्पणशीला जन्तुपङ्क्त्यः (बभूवुः) अन्यत् पूर्ववत् ॥
विषय
ज्यायान् प्रभु
पदार्थ
१. (यावती:) = जितने भी (भृङ्गा:) = भौरे, (जत्व:) = चमगादड़, (कुरूरव:) = चौलें हैं, (यावती:) = जितने भी (वघाः) = टिड्डी आदि जन्तु हैं, जितने भी (वृक्षसमे:) = वृक्षों पर सरकनेवाले कीट (बभूवुः) = हैं उन सबकी सम्मिलित शक्ति से भी आप महान् हैं। हे (काम) = कमनीय (मन्यो) = ज्ञानस्वरूप प्रभो! आप (निमिषत:) = आँखों को बन्द किये हुए-निमेषोन्मेष के व्यापारवाले जीवों से (ज्यायान्) = बड़े हो, (तिष्ठत:) = इन खड़े हुए वानस्पतिक जगत् से आप बड़े हो, (समुद्रात्) = इन समुद्रों से भी अथवा अन्तरिक्ष से भी आप (ज्यायान्) = बड़े हो। ३. (न वै) = निश्चय से न ही (वात: चन) = यह वायु भी (कामम् आप्नोति) = उस कमनीय प्रभु को व्याप्त कर पाता है, (न अग्निः) = न अग्नि उस प्रभु को महिमा को व्यापता है, (सूर्य:) = सूर्य भी नहीं व्यापता (उत) = और (न चन्द्रमा:) = न चन्द्रमा ही उस प्रभु की महिमा को व्याप सकता है। (तत:) = उन वायु, अग्नि, सूर्य व चन्द्रमा से हे (काम) = कमनीय प्रभो ! (त्वम्) = आप (ज्यायान्) = बड़े हो। (विश्वहा महान्) = सदा महनीय [पूजनीय] हो। (तस्मै ते) = उन आपके लिए (इत्) = निश्चय से (नमः कृणोमि) = नमस्कार करता हूँ।
भावार्थ
प्रभु की महिमा को सारे 'भृग व कृमि-कीट-पतङ्ग' नहीं व्याप सकते। वे प्रभु चराचर जगत् व सम्पूर्ण अन्तरिक्ष से महान् हैं। वायु, अग्नि, वचन्द्र में ही प्रभु की महिमा समास नहीं हो जाती। प्रभु इन सबसे महान् हैं।
भाषार्थ
(यावतीः) संख्या में जितनी (भृङ्गाः) भृङ्गे अर्थात् भौंरे हैं, भ्रमर हैं, (जत्वः) जितने चमगीदड़ हैं, (कुरूरवः) जितने शब्द करने वाले पक्षी हैं, (यावतीः) संख्या में जितनी (वृक्षसर्प्यः) वृक्ष में सर्पण करने वाली (वघाः) वघाएं१ हैं, (ततः) उन सब से (त्वम् असि ज्यायान् विश्वहा) संख्या में तू सदा बड़ा है, (महान्) महिमा में महान् है, (तस्मै ते) उस तेरे प्रति (काम) हे कमनीय परमेश्वर ! (नमः इत्) नमस्कार ही (कृणोमि) मैं करता हूं।
टिप्पणी
[मन्त्र में "भृङ्गाः" आदि का अभिप्राय अस्पष्ट है। "वघाः" के सम्बन्ध में “वधापते" (अथर्व० ६।५०।३) की व्याख्या में सायणाचार्य के अनुसार "अवघ्नन्ति, अवबाधन्त इति वघाः पतङ्गादयः" अर्थात् पतङ्गे आदि हैं। कुरूरव,= पक्षी हैं। "कुर्वन्ति रुम् (शब्दम्) इति," जोकि शब्द करते हैं, अर्थात् पक्षी। कुरुरवः = कुरुः२+ उ३ + रवः (रु शब्दे अदादिः) + क्विप् + प्रथमा बहुवचन। प्रतीत होता है कि 'भृङ्गाः" आदि द्युलोक के तारामण्डल हैं, प्राणी नहीं। भृंग= A large black bee (आप्टे)। भृङ्गाः को बड़ी काली Bee अर्थात् मक्खी या मक्षिका कहा है। तारामण्डल में एक "मक्षिकाः" तारामण्डल भी है, जिसे कि "musca" कहते हैं। (Popular Hindu Astronomy), कालिनाथ मुकुरजी तथा "musca" The fly, originally musca australis, the southern fly (Beyond the solar system, ग्रन्थकार "Willy ley", (पृष्ठ ९८) माक्षिका-मण्डल में कई तारा हैं, इन नाना तारों के कारण भृङ्गाः में बहुवचन हुआ है। जत्वः - यह है चमगीदड़। यह उड़ता है, इस लिये यह पक्षी है। इस का मुख गीदड़ सदृश होता है, इस लिये इसे गीदड़ अर्थात् fox भी कहा जा सकता है। the little fox" एक तारा मण्डल भी है। नाना तारा इस में हैं, इसलिये “जत्वः" में बहुवचन है। fox= गीदड़। कुरुरवः= पक्षी। तारामण्डलों में पक्षी कई हैं। यथा "गरुड़मण्डल (Aquilla) कपोत (columba); हंस (cygnur) मयूरमण्डल (pavo); इत्यादि। वृक्षसर्प्यः४ वघाः— वृक्ष से अभिप्राय "फल्गुनि" नक्षत्र का प्रतीत होता है। "पूर्वा-फल्गुनी नक्षत्र" और "उत्तराफल्गुनी नक्षत्र" को द्युलोक के चित्रों में वृक्षरूप में दर्शाया जाता है। इस नक्षत्र के घटक-तारा नाना होते हैं। इन्हें सम्भवतः "वघाः" कहा हो। "वघाः" तारे इस वृक्ष में सर्पण करते हैं, इसलिये “वघा" को "वृक्षसर्प्यः" कहा गया हो वृक्षसर्प्यः स्त्रीलिङ्ग बहुवचनान्त है, जोकि तारासमूहरूप है। सायणाचार्य भी “वघाः" को "पतङ्गाः" कहते हैं। "तारा" परिणाम में अत्यल्पकाय दीखते हैं, अतः ये "पतङ्गों" के सदृश हैं। मन्त्र का अभिप्राय यह प्रतीत होता है कि "भृङ्गाः" आदि में संख्या में जितने तारा है, संख्या की दृष्टि से कमनीय परमेश्वर गुण-कर्मों में उनसे भी ज्यायान् है। मन्त्र का अभिप्राय जो निर्दिष्ट किया है, उस से मन्त्र का महत्त्व प्रतीत होता है। "भृङ्गाः" आदि को प्राणी मानने पर मन्त्र का कोई महत्व नहीं रहता। “वृक्षसर्प्यः” में स्त्रीलिङ्ग और बहुवचन "वघा-ताराः" की दृष्टि से है।] [१. सायाणाचार्य ने 'वघाः" की निष्पत्ति “अव + हन्" से की है। "अव" के अकार का लोप, और हन् + उ= ह=घ, अतः "व + घ"= वघाः। धातु पाठ में "वधि" धातु है, जिसका अर्थ है गत्याक्षेप, अर्थात् निन्दित गति, स्वल्प गति, स्वल्प गति को "वृक्षसर्प्य" में सर्पण द्वारा निर्दिष्ट किया है। सम्भवतः "वघाः" पद "मघाः नक्षत्र" का विकृत रूप हो। और मन्त्र में "भृङ्गाः" आदि के सदृश "मघाः नक्षत्र" भी स्वतन्त्र रूप में अभिप्रेत हो, और "वृक्षसर्प्यः" भी एक स्वतन्त्र पद हो। "मघाः" के स्थान में पाठ "अघाः" मिलता है (ऋ० १०।८५।१३)। "वृक्षसर्प्यः" द्वारा वृक्षाकृतिक "फल्गुनी" नक्षत्र के द्वारा अभिप्रेत हैं। अतः भृङ्गाः, जत्वः, कुरूरवः, वघाः, वृक्षसर्प्पः सभी स्वतन्त्र तारामण्डल हैं। २. कुग्रोरुच्च (उणा० १।२४)। ३. "उ" अनर्थक है। यथा “पदपूरणास्ते मिताक्षरेषु, अनर्थकाः, "कम्, ईम्, इत्, उ (निरुक्त १।३०।१०)। मघाः= मा + घ (हन्) अघा ।। प्र+घ (हन); देखो अथर्ववेद भाष्य (१४।१।१३)। ४. संलग्न चित्र में "वृक्षसर्प्यः" के वृक्षों और उनमें सर्पण करने वाले ताराओं को दर्शाया है। डिगरी १०, ११, १२ के मध्य में नीचे की ओर दो अल्पकाय वृक्ष दर्शाएं हैं, जिन्हें कि पूर्वाफल्गुनी तथा उत्तराफल्गुनी कहते हैं। इन दो वृक्षों को अथर्ववेद में "फल्गुन्यौ" कहा है (१९।७।३)। इन दो वृक्षों की शाखाएं चमक रही है। यह चमक नाना ताराओं के कारण है जिन्हें कि मन्त्र २२ में "वृक्षसर्प्य" कहा है, अर्थात् वृक्षों में सर्पण करने वाले ताराः। इन दो वृक्षों में दो स्थूल तारा हैं, जोकि योगतारा अर्थात् मुख्यतारा हैं। ज्योतिषी इन्हीं दो ताराओं को पूर्वाफाल्गुनी तथा उत्तरा-फल्गुनी कहते हैं। परन्तु मन्त्र २२ में "वघः" तथा "वृक्षसर्प्यः" में बहुवचन द्वारा ताराओं का बहुत्व दर्शाया है। फल्गुन्यौ का अर्थ है "फलरूपी गुणों से समन्वित दो वृक्ष"। जत्वः— चमगीदड़ ! गीदड़ को संस्कृत में शृगाल कहते हैं। संलग्न चित्र में डिगरी २१ के अधोभाग में "शृगाल मण्डल" दर्शाया है, जिस का कुछ भाग छायापथ अर्थात् आकाशगङ्गा में प्रविष्ट हुआ है। कुरूरवः अर्थात् पक्षियों के चित्र अन्य नाना चित्रों में दर्शाए जाते हैं। संलग्न चित्र में ऊपर की १९, २० डिगरियों के अधोभाग में "गरुडमण्डल है, जोकि छायापथ के "या"—अक्षर के समीपस्थ है। अधोलिखित २२, २३ डिगरियों के उपरिभाग में "सारसमण्डल" दर्शाया है। तथा ऊपर की डिगरी २० के अधोभाग में "वकमण्डल" भी दर्शाया है। सारस= crane; वक= बगुला।]
विषय
प्रजापति परमेश्वर और राजा और संकल्प का ‘काम’ पद द्वारा वर्णन।
भावार्थ
(भृङ्गाः) भौंरे या मधुमक्खियां, (जत्वः) चिमगादर (कुरूरवः) चीलें (यावतीः) जितनी हैं और (वघाः) टीडी आदि जन्तु और (वृक्षसर्प्यः) वृक्ष पर सरकने वाले कीट (यावतीः) जितने (बभूवुः) हो रहते हैं है (काम) काममय ! परमेश्वर ! (ततः त्वम् ज्यायान्) उन सब के सम्मिलित सामर्थ्य से भी तू अधिक है। अर्थात् जिस काममय संकल्प से उक्त नाना प्रकार के लक्षों प्राणियों की उत्पत्ति, स्थिति, वृद्धि हो रही हैं तेरा सामर्थ्य उससे कहीं बढ़ा चढ़ा है। तू (विश्वहा महान्) सर्वव्यापक और महान् है। (तस्मै ते काम नमः इत् कृणोमि) उस परम कान्तिमय प्रभु को मैं नमस्कार करता हूं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वा ऋषिः॥ कामो देवता॥ १, ४, ६, ९, १०, १३, १९, २४ अनुष्टुभः। ५ अति जगती। ८ आर्चीपंक्तिः। ११, २०, २३ भुरिजः। १२ अनुष्टुप्। ७, १४, १५ १७, १८, २१, २२ अतिजगत्यः। १६ चतुष्पदा शक्वरीगर्भा पराजगती। पञ्चविंशर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Kama: Love and Determination
Meaning
As far as the fire-flies of the heavens abound, as far as bats and birds of the earth and sky fly and soar, as far as the serpents of the trees grow and multiply, you are greater and higher than all of them and their growth, all time all ways, the greatest indeed. Hence O Kama, lord of love and creative desire, loved and worshipped of all, I offer you salutations in homage. (In this verse, words which ordinarily denote birds and insects do not really do justice to the technique of comparison as adopted in other mantras from 19 to 24. Therefore the suggestion offered by Professor Vishwamatha Vidyalankara that these words probably mean things of astronomical dimensions seems plausible. Let us look at the signs of the zodiac such as scorpio, capricorn, pisces, aries, taurus, etc. There is one constellation called Musca, which could be ‘makshika’ in Sanskrit, meaning ‘a fly’, originally Musca australis, the southern fly beyond the solar system. Similarly Vrksha-sarpyah could be Phalguni Nakshatra, which in astronomical illustrations is shown as a tree. Reference may be made to his note on this mantra in his translation published by Ramlal Kapur Trust, Bahalgarh, Sonipat Dist., Haryana, India.
Translation
As many as there are the humble-bees (bhrngah), the bats (jatavah), the kururus (kururavah - a type of worms), as many as there are the beetles crawling on the trees (vrksasarpyah), you are superior to them, great in all respects; as such to you, O kama, I bow in reverence.
Translation
This Kama is stronger than those bees, bats, kites, locusts, and the worms living on the trees, it has the power of over-powering all and is great. Thus I accept the strength of Kama.
Translation
Many as are the bees, bats, vultures, locusts, and reptiles that creep on the trees; stronger than these all art Thou, and great for ever, O God, to Thee I offer worship!
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
२२−(भृङ्गाः) भृञः किन्नुट् च। उ० १।१२५। डुभृञ् भरणे-गन्, कित् नुट् च। भ्रमर्य्यः (जत्वः) फलिपाटिनमि०। उ० १।१८। जनी प्रादुर्भावे-उ, नस्य तः। जतुकाः। निशाचरपक्षिविशेषाः (कुरूरवः) रूशातिभ्यां क्रुन्। उ० ४।१०३। कु+रु शब्दे−क्रुन्, छान्दसो दीर्घः। कुत्सितध्वनयः (वघाः) अ० ६।५०।३। अन्येष्वपि दृश्यते। पा० ३।२।१०१। अव+हन-हिंसागत्योः-ड, टाप्। वष्टि भागुरिरल्लोपम्-अवशब्दस्य अलोपः। अवहननशीलाः। कीटादयः (वृक्षसर्प्यः) वृक्षेषु सर्पणशीला जन्तुपङ्क्त्यः (बभूवुः) अन्यत् पूर्ववत् ॥
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