अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 4/ मन्त्र 19
ब्रा॑ह्म॒णेभ्य॑ ऋष॒भं द॒त्त्वा वरी॑यः कृणुते॒ मनः॑। पुष्टिं॒ सो अ॒घ्न्यानां॒ स्वे गो॒ष्ठेऽव॑ पश्यते ॥
स्वर सहित पद पाठब्रा॒ह्म॒णेभ्य॑: । ऋ॒ष॒भम् । द॒त्त्वा । वरी॑य: । कृ॒णु॒ते॒ । मन॑: । पुष्टि॑म् । स: । अ॒घ्न्याना॑म् । स्वे । गो॒ऽस्थे । अव॑ । प॒श्य॒ते॒ ॥४.१९॥
स्वर रहित मन्त्र
ब्राह्मणेभ्य ऋषभं दत्त्वा वरीयः कृणुते मनः। पुष्टिं सो अघ्न्यानां स्वे गोष्ठेऽव पश्यते ॥
स्वर रहित पद पाठब्राह्मणेभ्य: । ऋषभम् । दत्त्वा । वरीय: । कृणुते । मन: । पुष्टिम् । स: । अघ्न्यानाम् । स्वे । गोऽस्थे । अव । पश्यते ॥४.१९॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
आत्मा की उन्नति का उपदेश।
पदार्थ
[जो आचार्य] (ब्राह्मणेभ्यः) ब्राह्मणों [ब्रह्मजिज्ञासुओं] को (ऋषभम्) श्रेष्ठ परमेश्वर [के बोध] को (दत्त्वा) देकर (मनः) मन (वरीयः) अधिक विस्तृत (कृणुते) करता है। (सः) वह पुरुष (स्वे) अपने (गोष्ठे) वाचनालय में (अघ्न्यानाम्) हिंसा न करनेवालों की (पुष्टिम्) पुष्टि (अव पश्यते) देखता है ॥१९॥
भावार्थ
आचार्य को योग्य है कि ब्रह्मजिज्ञासुओं को यथावत् रीति से ब्रह्मज्ञान कराके उनके लिये सुखवृद्धि करे ॥१९॥
टिप्पणी
१९−(ब्राह्मणेभ्यः) अ० २।६।३। तदधीते तद्वेद। पा० ४।२।५९। ब्रह्मणः परमेश्वरस्याध्येतृभ्यो जिज्ञासुभ्यः (ऋषभस्य) श्रेष्ठस्य परमात्मनो बोधमित्यर्थः (दत्त्वा) (वरीयः) उरुतरम् (कृणुते) करोति (मनः) अन्तःकरणम् (पुष्टिम्) वृद्धिम् (सः) आचार्यः (अघ्न्यानाम्) म० १७। अहिंसकानां प्रजापतीनाम् (स्वे) स्वकीये (गोष्ठे) अ० २।१४।२। वाचनालये (अव पश्यते) अवलोकते ॥
विषय
ऋषभ-दान
पदार्थ
१. (ब्राह्मणेभ्य:) = ब्रह्म-जिज्ञासुओं के लिए (ऋषभं दत्वा) = सर्वव्यापक व सर्वद्रष्टा प्रभु को प्रभु का ज्ञान देकर यह उपदेष्टा (मन: वरीयः कृणते) = अपने हृदय को विशाल [उदार] बनाता है। ज्ञान का आदान-प्रदान इन ज्ञानियों के मनों को उदार व पवित्र करता है। २. (स:) = वह ज्ञानोपदेष्टा (स्वे गोष्ठे) = अपने गोष्ट में [An assembly], अपनी सभाओं में (अध्यानाम्) = इन अहन्तव्य वेदवाणियों की (पुष्टिम्) = पुष्टि को (अवपश्यते) = देखता है। इनकी सभाओं में इन ज्ञान की वाणियों की ही चर्चा होती है और उस प्रकार इन्हीं का प्रसार होता है।
भावार्थ
हम गोष्ठियों में अहन्तव्य वेदवाणियों की ही चर्चा करें। ब्रह्मज्ञान का आदान प्रदान करते हुए विशाल व पवित्र हृदयोंवाले बनें।
भाषार्थ
(ब्राह्मणेभ्यः) ब्रह्मोपासकों को (ऋषभम्) श्रेष्ठ परमेश्वर का (दत्त्वा) प्रदान करके दाता (मनः) निज मन को (वरीयः) श्रेष्ठ तथा उदार (कृणुते) करता है, (सः) और वह (स्वे) अपने (गोष्ठे) मन या शरीर में (अघ्न्यानाम्) वेदवाणियों की (पुष्टिम्) पुष्टि को (अवपश्यते) देखता है।
टिप्पणी
[वरीया= श्रेष्ठ और विस्तृत [उदार] विना किसी प्रतिफल के मांगे, ब्रह्म दर्शन करा देने में, दाता निज मन की उदारता प्रकट करता है, और लोभ से रहित होने से मन को श्रेष्ठ बनाता है। गोष्ठे= गावः इन्द्रियाणि वेदवाचो वा तिष्ठन्ति यस्मिन्= मन या शरीर। इन्द्रियों को गौ भी कहते हैं, तभी इन्द्रिय-विषयों को गोचर कहते हैं। गोचर= जिन में इन्द्रियां विचरती हैं तथा "गौः पशुरिन्द्रियं सुखं किरणो वज्रं चन्द्रमा भूमिर्वाणी जलं वा" (उणा० २।६८, महर्षि दयानन्द)। "अघ्न्या पदनाम" (निघं० ५।५)। वेदवाणी अघ्न्या है, कभी इस का हनन नहीं होता, यह नित्या है। दाता के मन से वेदवाणियों की पुष्टि सदा होती रहती है। यथा “यस्मि न्नृच साम यजूंषि यस्मिन् प्रतिष्ठिता रथनाभाविवाराः। यस्मिंश्चित्तं सर्वमोतं प्रजानां तन्मे मनः शिवसंकल्पमस्तु" (यजु० ३४।५) अभिप्राय यह कि दाता-परमयोगी के मन में, परमेश्वर की स्तुति करने के लिये, वेदवाणी सदा जागृत रहती हैं, वह निशि-दिन परमेश्वर की स्तुति करता रहता है। इन मन्त्रों में बलीवर्द का वर्णन भी अभिप्रेत है, जोकि मन्त्र पाठ के समय अनायास प्रकट होता है। परन्तु मन्त्रों का मुख्य अभिप्राय परमेश्वर ही है।]
विषय
ऋषभ के दृष्टान्त से परमात्मा का वर्णन।
भावार्थ
यजमान पुरुष (ब्राह्मणेभ्यः) वेदवेत्ता पुरुषों को (ऋषभम्) सर्वश्रेष्ठ परमात्मा सम्बन्धी ज्ञान का (दत्वा) उपदेश दान देकर (मनः) अपने चित्त को (वरीयः) विशाल (कृणुते) कर लेता है। और (सः) वह दाता इससे (स्वे गोष्ठे) अपने शरीर में (अघ्न्यायां) अनश्वर शक्तियों की (पुष्टि) वृद्धि (अव पश्यते) देखता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ब्रह्मा ऋषिः। ऋषभो देवता। १-५, ७, ९, २२ त्रिष्टुभः। ८ भुरिक। ६, १०,२४ जगत्यौ। ११-१७, १९, २०, २३ अनुष्टुभः। १२ उपरिष्टाद् बृहती। २१ आस्तारपंक्तिः। चतुर्विंशर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Rshabha, the ‘Bull’
Meaning
That sage who imparts the knowledge of Rshabha to the seekers of Divinity raises his mind and imagination to higher freedom and culture and in his own personality realises the higher quality of his inviolable vision and perceptions.
Translation
By presenting a hull to the intellectual persons, one makes his mind more excellent. He witnesses the growth and increase of inviolable cows in his cow-stall.
Translation
He who gives the knowledge of almighty Divinity to the devotees of knowledge and action makes his mind delightful and free and he sees the growth and increases cows in his cattle-pen.
Translation
An Acharya, imparting the knowledge of God to the seekers after God, enlarges and cheers his soul. He witnesses the growth of immortal virtues in his body.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१९−(ब्राह्मणेभ्यः) अ० २।६।३। तदधीते तद्वेद। पा० ४।२।५९। ब्रह्मणः परमेश्वरस्याध्येतृभ्यो जिज्ञासुभ्यः (ऋषभस्य) श्रेष्ठस्य परमात्मनो बोधमित्यर्थः (दत्त्वा) (वरीयः) उरुतरम् (कृणुते) करोति (मनः) अन्तःकरणम् (पुष्टिम्) वृद्धिम् (सः) आचार्यः (अघ्न्यानाम्) म० १७। अहिंसकानां प्रजापतीनाम् (स्वे) स्वकीये (गोष्ठे) अ० २।१४।२। वाचनालये (अव पश्यते) अवलोकते ॥
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