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  • अथर्ववेद - काण्ड 18/ सूक्त 1/ मन्त्र 46
    सूक्त - पितरगण देवता - अनुष्टुप् छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - पितृमेध सूक्त

    इ॒दं पि॒तृभ्यो॒नमो॑ अस्त्व॒द्य ये पूर्वा॑सो॒ ये अप॑रास ई॒युः। ये पार्थि॑वे॒ रज॒स्यानिष॑क्ता॒ ये वा॑ नू॒नं सु॑वृ॒जना॑सु दि॒क्षु ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इ॒दम् । पि॒तृऽभ्य॑: । नम॑: । अ॒स्तु॒ । अ॒द्य । ये । पूर्वा॑स: । ये । अप॑रास: । ई॒यु: । ये । पार्थि॑वे । रज॑सि । आ । निऽस॑क्ता: । ये । वा॒ । नू॒नम् । सु॒ऽवृ॒जना॑सु । दि॒क्षु ॥१.४६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इदं पितृभ्योनमो अस्त्वद्य ये पूर्वासो ये अपरास ईयुः। ये पार्थिवे रजस्यानिषक्ता ये वा नूनं सुवृजनासु दिक्षु ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इदम् । पितृऽभ्य: । नम: । अस्तु । अद्य । ये । पूर्वास: । ये । अपरास: । ईयु: । ये । पार्थिवे । रजसि । आ । निऽसक्ता: । ये । वा । नूनम् । सुऽवृजनासु । दिक्षु ॥१.४६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 1; मन्त्र » 46

    भाषार्थ -
    (अद्य) आज पितृयज्ञ में (पितृभ्यः) पितरों के लिये (इदम्) यह (नमः) नमस्कार तथा अन्न (अस्तु) हो, (ये) जो पितर कि (पूर्वासः) पूर्वकाल के, अर्थात् बड़ी आयु के पितामह तथा प्रपितामह हैं, (ये) जो (अपरासः) अपर काल के, अर्थात् उन से छोटी आयु के पिता आदि हैं, जो कि (ईयुः) मेरे घर आएं हैं। पितर (ये) जो कि (पार्थिवे रजसि) पृथिवी लोक में (निषत्ताः) स्थित है, (वा) और (ये) जो (नूनम्) निश्चय से (सुवृजनासु) चोर उचक्कों तथा पापकर्मों से वर्जित (दिक्षु) दिग्-दिगन्तरों में स्थित हैं। [वा समुच्चयार्थे (नि० १।२।५)।]

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