अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 9/ मन्त्र 5
सूक्त - भृगुः
देवता - त्रैककुदाञ्जनम्
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - आञ्जन सूक्त
नैनं॒ प्राप्नो॑ति श॒पथो॒ न कृ॒त्या नाभि॒शोच॑नम्। नैनं॒ विष्क॑न्धमश्नुते॒ यस्त्वा॒ बिभ॑र्त्याञ्जन ॥
स्वर सहित पद पाठन । ए॒न॒म् । प्र । आ॒प्नो॒ति॒ । श॒पथ॑: । न । कृ॒त्या । न । अ॒भिऽशोच॑नम् । न । ए॒न॒म् । विऽस्क॑न्धम् । अ॒श्नु॒ते॒ । य: । त्वा॒ । बिभ॑र्ति । आ॒ऽअ॒ञ्ज॒न॒ ॥९.५॥
स्वर रहित मन्त्र
नैनं प्राप्नोति शपथो न कृत्या नाभिशोचनम्। नैनं विष्कन्धमश्नुते यस्त्वा बिभर्त्याञ्जन ॥
स्वर रहित पद पाठन । एनम् । प्र । आप्नोति । शपथ: । न । कृत्या । न । अभिऽशोचनम् । न । एनम् । विऽस्कन्धम् । अश्नुते । य: । त्वा । बिभर्ति । आऽअञ्जन ॥९.५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 9; मन्त्र » 5
भाषार्थ -
(आञ्जन) हे सर्वत्र अभिव्यक्ति करनेवाले ब्रह्म-पुरुष ! [मन्त्र ७] (यः) जो उपासक (त्वा) तुझे (विभर्त्ति) निज जीवन में धारित तथा सम्पोषित करता है, (एनम्) इसको (न शपथ:) न शपथ, (न कृत्या) न हिंसा करने की भावना, (न अभि शोचनम्) न शोक (प्राप्नोति) प्राप्त होता है। (एनम्) इसको (विष्कन्धम्) गति-प्रतिबन्धक विष्न अर्थात् अन्तराय (न अश्नुते) नहीं व्याप्त करते।
टिप्पणी -
[मन्त्र में ब्रह्म-पूरुष का मुख्य वर्णन है। ब्रह्म अर्थात परमेश्वर को "पुरुषविशेष ईश्वरः" कहा है, (योग समाधिपाद, सूत्र २४)। यजुर्वेद में ब्रह्म प्रतिपादक 'पुरुषसूक्त' भी है (यजु० ३१), अतः ब्रह्म, पुरुष है। शपथ:=यह परकृत शाप नहीं है। शपथ स्वयं ली जाती है. और शाप अन्य व्यक्ति द्वारा दिया जाता है। इसलिए 'शपथाभिशापौ में द्विवचन का प्रयोग हुआ है, (निरक्त ७।१।३), यथा "अथापि शपथाभिशापौ"। कृत्या=कृती छेदने (तुदादिः). दूसरे की हिंसा की भावना। बह्मोपासक यह ममझता है कि जो दुःख-कष्ट मिलते हैं वे अपने कर्मो के अनुसार न्यायपूर्वक और व्यक्ति के सुधार के लिए, उसे सचेत कराने के लिए ही मिलते हैं, अतः वह दुःख-कष्ट मिलने पर भी शोक नहीं करता। यथा "तत्र को मोह: क: शोक: एकत्वमनुपश्यतः" (यजुः० ४०।७)। अन्तराय (मन्त्र ४)। विष्कन्धम् = वि+स्कन्दिर् गतिशोषणयोः (स्वादिः), 'गति' अर्थ अभिप्रेत है। वि+गतिः=विष्कन्धम् = "गतिप्रतिबन्धकम् विघ्नजातम्" (सायण)। गौणार्थ में,-जो अञ्जनभस्म का सेवन करता है उसका मानसिक परिवर्तन हो जाने से, वह मानसिक रोगों से मुक्त हो जाता है। मानसिक रोग हैं, शपथ लेना, हिंस्र भावनाएँ, तथा अतिशोक आदि तथा मानसिक गति में विघ्नों का विनाश।]