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  • यजुर्वेद - अध्याय 16/ मन्त्र 12
    ऋषिः - प्रजापतिर्ऋषिः देवता - रुद्रो देवता छन्दः - निचृदार्ष्यनुस्टुप् स्वरः - गान्धारः
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    परि॑ ते॒ धन्व॑नो हे॒तिर॒स्मान् वृ॑णक्तु वि॒श्वतः॑। अथो॒ यऽइ॑षु॒धिस्तवा॒रेऽअ॒स्मन्निधे॑हि॒ तम्॥१२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    परि॑। ते॒। धन्व॑नः। हे॒तिः। अ॒स्मान्। वृ॒ण॒क्तु॒। वि॒श्वतः॑। अथो॒ऽइत्यथो॑। यः। इ॒षु॒धिरिती॑षु॒ऽधिः। तव॑। आ॒रे। अ॒स्मत्। नि। धे॒हि॒। तम् ॥१२ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    परि ते धन्वनो हेतिरस्मान्वृणक्तु विश्वतः । अथो यऽइषुधिस्तवारे अस्मन्निधेहि तम् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    परि। ते। धन्वनः। हेतिः। अस्मान्। वृणक्तु। विश्वतः। अथोऽइत्यथो। यः। इषुधिरितीषुऽधिः। तव। आरे। अस्मत्। नि। धेहि। तम्॥१२॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 16; मन्त्र » 12
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    पदार्थ -
    हे सेनापति! जो (ते) आप के (धन्वनः) धनुष् की (हेतिः) गति है, उस से (अस्मान्) हम लोगों को (विश्वतः) सब ओर से (आरे) दूर में आप (परिवृणक्तु) त्यागिये। (अथो) इस के पश्चात् (यः) जो (तव) आप का (इषुधिः) बाण रखने का घर अर्थात् तर्कस है (तम्) उस को (अस्मत्) हमारे समीप से (नि, धेहि) निरन्तर धारण कीजिये॥१२॥

    भावार्थ - राज और प्रजाजनों को चाहिये कि युद्ध और शस्त्रों का अभ्यास कर के शस्त्रादि सामग्री सदा अपने समीप रक्खें। उन सामग्रियों से एक-दूसरे की रक्षा और सुख की उन्नति करें॥१२॥

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