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  • यजुर्वेद - अध्याय 27/ मन्त्र 2
    ऋषिः - अग्निर्ऋषिः देवता - समिधन्यो देवताः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
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    सं चे॒ध्यस्वा॑ग्ने॒ प्र च॑ बोधयैन॒मुच्च॑ तिष्ठ मह॒ते सौभ॑गाय।मा च॑ रिषदुपस॒त्ता ते॑ऽ अग्ने ब्र॒ह्माण॑स्ते य॒शसः॑ सन्तु॒ माऽन्ये॥२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सम्। च॒। इ॒ध्यस्व॑। अ॒ग्ने॒। प्र। च॒। बो॒ध॒य॒। ए॒न॒म्। उत्। च॒। ति॒ष्ठ॒। म॒ह॒ते। सौभ॑गाय ॥ मा। च॒। रि॒ष॒त्। उ॒प॒स॒त्तेत्यु॑पऽस॒त्ता। ते॒। अ॒ग्ने॒। ब्र॒ह्माणः॑। ते॒। य॒शसः॑। स॒न्तु॒। मा। अ॒न्ये ॥२ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सञ्चेध्यस्वाग्ने प्र च बोधयैनमुच्च तिष्ठ महते सौभगाय । मा च रिषदुपसत्ता तेऽअग्ने ब्रह्माणस्ते यशसः सन्तु मान्ये ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    सम्। च। इध्यस्व। अग्ने। प्र। च। बोधय। एनम्। उत्। च। तिष्ठ। महते। सौभगाय॥ मा। च। रिषत्। उपसत्तेत्युपऽसत्ता। ते। अग्ने। ब्रह्माणः। ते। यशसः। सन्तु। मा। अन्ये॥२॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 27; मन्त्र » 2
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    पदार्थ -
    हे (अग्ने) अग्नि के तुल्य तेजस्वी विद्वन्! आप (सम्, इध्यस्व) अच्छे प्रकार प्रकाशित हूजिये (च) और (एनम्) इस जिज्ञासु जन को (प्रबोधय) अच्छा बोध कराइये (च) और (महते) बड़े (सौभगाय) सौभाग्य होने के लिए (उत्, तिष्ठ) उद्यत हूजिये तथा (उपसत्ता) समीप बैठने वाले आप सौभाग्य को (मा, रिषत्) मत बिगाडि़ये। हे (अग्ने) तेजस्विजन! (ते) आप के (ब्रह्माणः) चारों वेद के जानने वाले (अन्ये) भिन्न बुद्धि वाले (च) भी (मा, सन्तु) न हो जावें (च) और (ते) आप अपने (यशसः) यश कीर्ति की उन्नति को न बिगाडि़ये॥२॥

    भावार्थ - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो विद्वानों से भिन्न इतर जनों को उत्तम अधिकार में नहीं युक्त करते, सदा उन्नति के लिए प्रयत्न करते और अन्याय से किसी को नहीं मारते हैं, वे कीर्त्ति और ऐश्वर्य से युक्त हो जाते हैं॥२॥

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