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  • यजुर्वेद - अध्याय 34/ मन्त्र 47
    ऋषिः - हिरण्यस्तूप ऋषिः देवता - अश्विनौ देवते छन्दः - जगती स्वरः - निषादः
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    आ ना॑सत्या त्रि॒भिरे॑काद॒शैरि॒ह दे॒वेभि॑र्यातं मधु॒पेय॑मश्विना।प्रायु॒स्तारि॑ष्टं॒ नी रपा॑सि मृक्षत॒ꣳ सेध॑तं॒ द्वेषो॒ भव॑तꣳ सचा॒भुवा॑॥४७॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ। ना॒स॒त्या॒। त्रि॒भिरिति॑ त्रि॒ऽभिः। ए॒का॒द॒शैः। इ॒ह। दे॒वेभिः॑। या॒त॒म्। म॒धु॒पेय॒मिति॑ मधु॒पेऽय॑म्। अ॒श्वि॒ना॒ ॥ प्र। आयुः॑। तारि॑ष्टम्। निः। रपा॑सि। मृ॒क्ष॒त॒म्। सेध॑तम्। द्वेषः॑। भव॑तम्। स॒चा॒भुवेति॑ सचा॒ऽभुवा॑ ॥४७ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ नासत्या त्रिभिरेकादशैरिह देवेभिर्यातम्मधुपेयमश्विना । प्रायुस्तारिष्टन्नी रपाँसि मृक्षतँ सेधतन्द्वेषो भवतँ सचाभुवा ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    आ। नासत्या। त्रिभिरिति त्रिऽभिः। एकादशैः। इह। देवेभिः। यातम्। मधुपेयमिति मधुपेऽयम्। अश्विना॥ प्र। आयुः। तारिष्टम्। निः। रपासि। मृक्षतम्। सेधतम्। द्वेषः। भवतम्। सचाभुवेति सचाऽभुवा॥४७॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 34; मन्त्र » 47
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    पदार्थ -
    हे (नासत्या) असत्य आचरण से रहित (अश्विना) राज्य और प्रजा के विद्वानो! जैसे तुम (इह) इस जगत् में (त्रिभिः) एकादशैः) तेंतीस (देवेभिः) उत्तम पृथिवी आदि (आठ वसु, प्राणादि ग्यारह रुद्र, बारह महीनों तथा बिजुली और यज्ञ) तेंतीस देवताओं के साथ (मधुपेयम्) मधुर गुणों से युक्त पीने योग्य ओषधियों के रस को (आ, यातम्) अच्छे प्रकार प्राप्त होओ वा उसके लिये आया करो। (रपांसि) पापों को (मृक्षतम्) शुद्ध किया करो। (द्वेषः) द्वेषादि दोषयुक्त प्राणियों का (निः, सेधतम्) खण्डन वा निवारण किया करो। (सचाभुवा) सत्य पुरुषार्थ के साथ कार्यों में संयुक्त (भवतम्) होओ और (आयुः) जीवन को (प्र, तारिष्टम्) अच्छे प्रकार बढ़ाओ, वैसे हम लोग होवें॥४७॥

    भावार्थ - वे ही लोग जगत् के हितैषी हैं, जो पृथिवी आदि सृष्टि की विद्या को जान के दूसरों को ग्रहण करावें, दोषों को दूर करें और अधिक काल जीवन के विधान का प्रचार किया करें॥४७॥

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