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  • यजुर्वेद - अध्याय 34/ मन्त्र 9
    ऋषिः - अगस्त्य ऋषिः देवता - अनुमतिर्देवता छन्दः - निचृदनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः
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    अनु॑ नो॒ऽद्यानु॑मतिर्य॒ज्ञं दे॒वेषु॑ मन्यताम्।अ॒ग्निश्च॑ हव्य॒वाह॑नो॒ भव॑तं दा॒शुषे॒ मयः॑॥९॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अनु॑। नः॒। अ॒द्य। अनु॑मति॒रित्यनु॑ऽमतिः। य॒ज्ञम्। दे॒वेषु॑। म॒न्य॒ता॒म् ॥ अ॒ग्निः। च॒। ह॒व्य॒वाह॑न॒ इति॑ हव्य॒ऽवाह॑नः। भव॑तम्। दा॒शुषे॑ मयः॑ ॥९ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अनु नोद्यानुमतिर्यज्ञन्देवेषु मन्यताम् । अग्निश्च हव्यवाहनो भवतन्दाशुषे मयः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अनु। नः। अद्य। अनुमतिरित्यनुऽमतिः। यज्ञम्। देवेषु। मन्यताम्॥ अग्निः। च। हव्यवाहन इति हव्यऽवाहनः। भवतम्। दाशुषे मयः॥९॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 34; मन्त्र » 9
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    पदार्थ -
    जो (अनुमतिः) अनूकूल विज्ञानवाला जन (अद्य) आज (देवेषु) विद्वानों में (नः) हमारे (यज्ञम्) सुख देने के साधनरूप व्यवहार को (अनु, मन्यताम्) अनुकूल माने, वह (च) और (हव्यवाहनः) ग्रहण करने योग्य पदार्थों को प्राप्त करानेवाले (अग्निः) अग्नि के तुल्य तेजस्वी वा अग्निविद्या का विद्वान् तुम दोनों (दाशुषे) दानशील मनुष्य के लिये (मयः) सुखकारी (भवतम्) होओ॥९॥

    भावार्थ - जो मनुष्य सत्कर्मों के अनुष्ठान में अनुमति देने और दुष्टकर्मों के अनुष्ठान को निषेध करनेवाले हैं, वे अग्नि आदि की विद्या से सबके लिये सुख देवें॥९॥

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