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  • यजुर्वेद - अध्याय 7/ मन्त्र 21
    ऋषिः - वत्सार काश्यप ऋषिः देवता - सोमो देवता छन्दः - स्वराट् ब्राह्मी त्रिष्टुप्,याजुषी जगती स्वरः - धैवतः, निषादः
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    सोमः॑ पवते॒ सोमः॑ पवते॒ऽस्मै ब्रह्म॑णे॒ऽस्मै क्ष॒त्राया॒स्मै सु॑न्व॒ते यज॑मानाय पवतऽइ॒षऽऊ॒र्जे प॑वते॒ऽद्भ्यऽओष॑धीभ्यः पवते॒ द्यावा॑पृथि॒वाभ्यां॑ पवते सुभू॒ताय॑ पवते॒ विश्वे॑भ्यस्त्वा दे॒वेभ्य॑ऽए॒ष ते॒ योनि॒र्विश्वे॑भ्यस्त्वा दे॒वेभ्यः॑॥२१॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सोमः॑। प॒व॒ते॒। सोमः॑। प॒व॒ते॒। अ॒स्मै। ब्रह्म॑णे। अ॒स्मै। क्ष॒त्राय॑। अ॒स्मै। सु॒न्व॒ते। यज॑मानाय। प॒व॒ते॒। इ॒षे। ऊ॒र्ज्जे। प॒व॒ते॒। अ॒द्भ्यऽइत्य॒त्ऽभ्यः। ओष॑धीभ्यः। प॒व॒ते॒। द्यावा॑पृथि॒वीभ्या॑म्। प॒व॒ते॒। सु॒भूतायेति॑ सुऽभू॒ताय॑। प॒व॒ते॒। विश्वे॑भ्यः। त्वा॒। दे॒वेभ्यः॑। ए॒षः। ते॒। योनिः॑। विश्वे॑भ्यः। त्वा॒। दे॒वेभ्यः॑ ॥२१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सोमः पवते सोमः पवतेस्मै ब्रह्मणेस्मै क्षत्रायास्मै सुन्वते यजमानाय पवतऽइष ऊर्जे पवतेद्भ्य ओषधीभ्यः पवते द्यावापृथिवीभ्याम्पवते सुभूताय पवते विश्वेभ्यस्त्वा देवेभ्यऽएष ते योनिर्विश्वेभ्यस्त्वा देवेभ्यः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    सोमः। पवते। सोमः। पवते। अस्मै। ब्रह्मणे। अस्मै। क्षत्राय। अस्मै। सुन्वते। यजमानाय। पवते। इषे। ऊर्ज्जे। पवते। अद्भ्यऽइत्यत्ऽभ्यः। ओषधीभ्यः। पवते। द्यावापृथिवीभ्याम्। पवते। सुभूतायेति सुऽभूताय। पवते। विश्वेभ्यः। त्वा। देवेभ्यः। एषः। ते। योनिः। विश्वेभ्यः। त्वा। देवेभ्यः॥२१॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 7; मन्त्र » 21
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    पदार्थ -
    हे विद्वान् लोगो! जैसे यह (सोमः) सोम्यगुण सम्पन्न राजा (अस्मै) इस (ब्रह्मणे) परमेश्वर वा वेद को जानने के लिये (पवते) पवित्र होता है, (अस्मै) इस (क्षत्राय) क्षत्रिय धर्म के लिये (पवते) ज्ञानवान् होता है, (अस्मै) इस (सुन्वते) समस्त विद्या के सिद्धान्त को निष्पादन (यजमानाय) और उत्तम संग करने हारे विद्वान् के लिये (पवते) निर्मल होता है, (इषे) अन्न के गुण और (ऊर्ज्जे) पराक्रम के लिये (पवते) शुद्ध होता है, (अद्भ्यः) जल और प्राण वा (ओषधीभ्यः) सोम आदि ओषधियों को (पवते) जानता है, (द्यावापृथिवाभ्यीम्) सूर्य्य और पृथिवी के लिये (पवते) शुद्ध होता है, (सुभूताय) अच्छे व्यवहार के लिये (पवते) बुरे कामों से बचता है, वैसे (सोमः) सभाजन वा प्रजाजन सबको यथोक्त जाने-माने और आप भी वैसा पवित्र रहे। हे राजन् सभ्यजन वा प्रजाजन! जिस (ते) आप का (एषः) यह राजधर्म्म (योनिः) घर है, उस (त्वा) आप को (विश्वेभ्यः) समस्त (देवेभ्यः) विद्वानों के लिये तथा (त्वा) आप को (विश्वेभ्यः) सम्पूर्ण दिव्यगुणों के लिये हम लोग स्वीकार करते हैं॥२१॥

    भावार्थ - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे इन्द्रलोक सब जगत् के लिये हितकारी होता है और जैसे राजा सभा के जन और प्रजाजनों के साथ उनके उपकार के लिये धर्म्म के अनुकूल व्यवहार का आचरण करता है, वैसे ही सभ्य पुरुष और प्रजाजन राजा के साथ वर्त्तें। जो उत्तम व्यवहार, गुण और कर्म का अनुष्ठान करने वाला होता है, वही राजा और सभा-पुरुष न्यायकारी हो सकता है तथा जो धर्मात्मा जन है, वही प्रजा में अग्रगण्य समझा जाता है। इस प्रकार ये तीनों परस्पर प्रीति के साथ पुरुषार्थ से विद्या आदि गुण और पृथिवी आदि पदार्थों से अखिल सुख को प्राप्त हो सकते हैं॥२१॥

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