यजुर्वेद - अध्याय 7/ मन्त्र 26
ऋषिः - देवश्रवा ऋषिः
देवता - यज्ञो देवता
छन्दः - स्वराट् ब्राह्मी बृहती
स्वरः - मध्यमः
5
यस्ते॑ द्र॒प्स स्कन्द॑ति॒ यस्ते॑ऽअ॒ꣳशुर्ग्राव॑च्युतो धि॒षण॑योरु॒पस्था॑त्। अ॒ध्व॒र्योर्वा॒ परि॑ वा॒ यः प॒वित्रा॒त्तं ते॑ जुहोमि॒ मन॑सा॒ वष॑ट्कृत॒ꣳ स्वाहा॑ दे॒वाना॑मुत्क्रम॑णमसि॥२६॥
स्वर सहित पद पाठयः। ते॒। द्र॒प्सः। स्कन्द॑ति। यः। ते॒। अ॒ꣳशुः। ग्राव॑च्युत॒ इति॒ ग्राव॑ऽच्युतः। धि॒षण॑योः। उ॒पस्था॒दित्यु॒पऽस्था॑त्। अ॒ध्व॒र्य्योः। वा॒। परि॑। वा॒। यः। प॒वित्रा॑त्। तम्। ते॒। जु॒हो॒मि॒। मन॑सा। वष॑ट्कृत॒मिति॒ वष॑ट्ऽकृतम्। स्वाहा॑। दे॒वाना॑म्। उ॒त्क्रम॑ण᳖मित्यु॒त्ऽक्रम॑णम्। अ॒सि॒ ॥२६॥
स्वर रहित मन्त्र
यस्ते द्रप्स स्कन्दति यस्ते अँशुर्ग्रावच्युतो धिषणयोरुपस्थाति अध्वर्यार्वा परि वा यः पवित्रात्तन्जुहोमि मनसा वषट्कृतँ स्वाहा देवानामुत्क्रमणमसि ॥
स्वर रहित पद पाठ
यः। ते। द्रप्सः। स्कन्दति। यः। ते। अꣳशुः। ग्रावच्युत इति ग्रावऽच्युतः। धिषणयोः। उपस्थादित्युपऽस्थात्। अध्वर्य्योः। वा। परि। वा। यः। पवित्रात्। तम्। ते। जुहोमि। मनसा। वषट्कृतमिति वषट्ऽकृतम्। स्वाहा। देवानाम्। उत्क्रमणमित्युत्ऽक्रमणम्। असि॥२६॥
विषय - अब ईश्वर यज्ञ के अनुष्ठान करने वाले को उपदेश करता है॥
पदार्थ -
हे यज्ञपते! (यः) जो (ते) तेरा (द्रप्सः) यज्ञ के पदार्थों का समूह (स्कन्दति) पवन के साथ सब जगह में प्राप्त होता है और (यः) जो (ते) तेरे यज्ञ से युक्त (ग्रावच्युतः) मेघमण्डल से छूटा हुआ (अंशुः) यज्ञ के पदार्थों का विभाग (धिषणयोः) प्रकाश और भूमि के (पवित्रात्) पवित्र (उपस्थात्) गोद के समान स्थान से (वा) अथवा (यः) जो (अध्वर्य्योः) यज्ञ करने वालों से (वा) अथवा (परि) सब से प्रकाशित होता है, इससे (तम्) उस यज्ञ को मैं (ते) तेरे लिये (स्वाहा) सत्यवाणी और (मनसा) मन से (वषट्कृतम्) किये हुए संकल्प के समान (जुहोमि) देता हूं अर्थात् उसके फलदायक होने से तेरे लिये उस पदार्थ को पहुंचाता हूं, जिसलिये यज्ञ का अनुष्ठान करने हारा तू (देवानाम्) विद्वानों के लिये (उत्क्रमणम्) ऊंची श्रेणी को प्राप्त करने वाले ऐश्वर्य्य के समान (असि) है, इससे तुझ को सुख प्राप्त होता है॥२६॥
भावार्थ - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। होता आदि विद्वान् लोग अत्यन्त दृढ़ सामग्री से यज्ञ करते हुए जिन सुगन्धि आदि पदार्थों को अग्नि में छोड़ते हैं, वे पवन और जलादि पदार्थों को पवित्र कर उसके साथ पृथिवी पर आ सब प्रकार के रोगों को निवृत्त करके सब प्राणियों को आनन्द देते हैं। इस कारण सब मनुष्यों को इस यज्ञ का सदा सेवन करना चाहिये॥२६॥
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