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  • अथर्ववेद - काण्ड 14/ सूक्त 1/ मन्त्र 18
    सूक्त - आत्मा देवता - अनुष्टुप् छन्दः - सवित्री, सूर्या सूक्तम् - विवाह प्रकरण सूक्त

    प्रेतोमु॑ञ्चामि॒ नामुतः॑ सुब॒द्धाम॒मुत॑स्करम्। यथे॒यमि॑न्द्र मीढ्वः सुपु॒त्रासु॒भगास॑ति ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्र । इ॒त: । मु॒ञ्चा॒मि॒ । न । अ॒मुत॑: । सु॒ऽब॒ध्दाम् । अ॒मुत॑: । क॒र॒म् । यथा॑ । इ॒यम् । इ॒न्द्र॒ । मी॒ढ्व॒: । सु॒ऽपु॒त्रा: । सु॒ऽभगा॑ । अस॑ति ॥१.१८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्रेतोमुञ्चामि नामुतः सुबद्धाममुतस्करम्। यथेयमिन्द्र मीढ्वः सुपुत्रासुभगासति ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्र । इत: । मुञ्चामि । न । अमुत: । सुऽबध्दाम् । अमुत: । करम् । यथा । इयम् । इन्द्र । मीढ्व: । सुऽपुत्रा: । सुऽभगा । असति ॥१.१८॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 14; सूक्त » 1; मन्त्र » 18

    पदार्थ -
    (इतः) इस [वियोगपाश]से [इस वधू को] (प्र मुञ्चामि) मैं [वर] अच्छे प्रकार छुड़ाताहूँ, (अमुतः) उस [प्रेमपाश] से (न) नहीं [छुड़ाता], (अमुतः) उस [प्रेमपाश] में [इस वधू] को (सुबद्धाम्) अच्छे बन्धनयुक्त (करम्) मैं करता हूँ। (यथा) जिस से (मीढ्वः) हेसुख की वर्षा करनेवाले (इन्द्र) परम ऐश्वर्यवाले परमात्मन् ! (इयम्) यह [वधू] (सुपुत्रा) सुन्दर पुत्रोंवाली और (सुभगा) बड़े ऐश्वर्यवाली (असति) होवे ॥१८॥

    भावार्थ - वधू-वर को चाहिये किआपस में बड़े प्रेम का बरताव करें, और परमात्मा की उपासना करके प्रयत्नपूर्वकघर में श्रेष्ठ सन्तान और ऐश्वर्य प्राप्त करके दोनों आनन्दित रहें ॥१८॥मन्त्र१८, १९ ऋग्वेद में कुछ भेद से हैं−१०।८५।२५, २४ और दोनों मन्त्र महर्षिदयानन्दकृत संस्कारविधि विवाहप्रकरण में उद्धृत हैं और विनियोग इस प्रकार है कि वर इनदोनों मन्त्रों को बोलकर वधू के बँधे हुए केशों को छोड़े ॥

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