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  • अथर्ववेद - काण्ड 14/ सूक्त 1/ मन्त्र 37
    सूक्त - आत्मा देवता - त्रिष्टुप् छन्दः - सवित्री, सूर्या सूक्तम् - विवाह प्रकरण सूक्त

    यो अ॑नि॒ध्मोदी॒दय॑द॒प्स्वन्तर्यं विप्रा॑स॒ ईड॑ते अध्व॒रेषु॑। अपां॑ नपा॒न्मधु॑मतीर॒पोदा॒ याभि॒रिन्द्रो॑ वावृ॒धे वी॒र्यावान् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    य: । अ॒नि॒ध्म: । दी॒दय॑त् । अ॒प्ऽसु । अ॒न्त: । यम् । विप्रा॑स: । ईड॑ते । अ॒ध्व॒रेषु॑ । अपा॑म् । न॒पा॒त् । मधु॑ऽमती: । अ॒प: । दा॒: । याभि॑: । इन्द्र॑: । व॒वृ॒धे । वी॒र्य᳡वान् ॥१.३७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यो अनिध्मोदीदयदप्स्वन्तर्यं विप्रास ईडते अध्वरेषु। अपां नपान्मधुमतीरपोदा याभिरिन्द्रो वावृधे वीर्यावान् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    य: । अनिध्म: । दीदयत् । अप्ऽसु । अन्त: । यम् । विप्रास: । ईडते । अध्वरेषु । अपाम् । नपात् । मधुऽमती: । अप: । दा: । याभि: । इन्द्र: । ववृधे । वीर्यवान् ॥१.३७॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 14; सूक्त » 1; मन्त्र » 37

    पदार्थ -
    (यः) जो [परमेश्वर] (अनिध्मः) बिना चमकता हुआ [अन्तर्यामी] रहकर (अप्सु अन्तः) प्रजाओं के भीतर (दीदयत्) चमकता है, (यम्) जिस [परमेश्वर] की, (विप्रासः) बुद्धिमान् लोग (अध्वरेषु) सन्मार्ग बतानेवाले व्यवहारों में, (ईडते) बड़ाई करते हैं, [सो तू] (अपाम्) प्रजाओं के मध्य (नपात्) नाशरहित [परमेश्वर !] (मधुमतीः) मधु विद्या सेयुक्त [पूर्ण विज्ञानवती] (अपः) प्रजाएँ (दाः) दे, (याभिः) जिन [प्रजाओं] से (इन्द्रः) बड़ा ऐश्वर्यवान् मनुष्य (वीर्यवान्) वीर्यवान् [धीर, वीर, शरीर, इन्द्रिय, और मन की अतिशय शक्तिवाला] होकर (वावृधे) बढ़ता है ॥३७॥

    भावार्थ - वधू-वर को उचित है किविद्वानों के समान सर्वान्तर्यामी सर्वनियन्ता परमात्मा की उपासना करकेब्रह्मचर्यादि से विद्वान् सन्तान, सेवक आदि प्राप्त करें और वेदविद्या द्वाराबढ़ाकर सदा उन्नति करते रहें ॥३७॥यह मन्त्र कुछ भेद से ऋग्वेद में है−१०।३०।४, और निरुक्त १०।१९ में भी व्याख्यात है ॥

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