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  • यजुर्वेद - अध्याय 13/ मन्त्र 45
    ऋषिः - विरूप ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
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    योऽ अ॒ग्निर॒ग्नेरध्यजा॑यत॒ शोका॑त् पृथि॒व्याऽ उ॒त वा॑ दि॒वस्परि॑। येन॑ प्र॒जा वि॒श्वक॑र्मा ज॒जान॒ तम॑ग्ने॒ हेडः॒ परि॑ ते वृणक्तु॥४५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यः। अ॒ग्निः। अ॒ग्नेः। अधि॑। अजा॑यत। शोका॑त्। पृ॒थि॒व्याः। उ॒त। वा॒। दि॒वः। परि॑। येन॑। प्र॒जा इति॑ प्र॒ऽजाः। वि॒श्वक॒र्मेति॑ वि॒श्वऽक॑र्मा। ज॒जान॑। तम्। अ॒ग्ने॒। हेडः॑। परि॑। ते॒। वृ॒ण॒क्तु॒ ॥४५ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    योऽग्निरग्नेरधियजायत शोकात्पृथिव्याऽउत वा दिवस्परि । येन प्रजा विश्वकर्मा जजान तमग्ने हेडः परि ते वृणक्तु ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    यः। अग्निः। अग्नेः। अधि। अजायत। शोकात्। पृथिव्याः। उत। वा। दिवः। परि। येन। प्रजा इति प्रऽजाः। विश्वकर्मेति विश्वऽकर्मा। जजान। तम्। अग्ने। हेडः। परि। ते। वृणक्तु॥४५॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 13; मन्त्र » 45
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    भावार्थ - हे विद्वानांनो ! जो अग्नी (ज्वालामुखी वगैरे) पृथ्वीतून बाहेर येतो व सूर्याच्या प्रकाशातून जी विद्युत प्रकट होते त्या विघ्नकारी अग्नीपासून सर्व प्राण्यांचे रक्षण करा व ज्या अग्नीने ईश्वर सर्वांचे रक्षण करतो ती अग्निविद्या जाणा.

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