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  • यजुर्वेद - अध्याय 2/ मन्त्र 20
    ऋषिः - परमेष्ठी प्रजापतिर्ऋषिः देवता - अग्निसरस्वत्यौ देवते छन्दः - भूरिक् ब्राह्मी त्रिष्टुप्, स्वरः - धैवतः
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    अग्ने॑ऽदब्धायोऽशीतम पा॒हि मा॑ दि॒द्योः पा॒हि प्रसि॑त्यै पा॒हि दुरि॑ष्ट्यै पा॒हि दुर॑द्म॒न्याऽअ॑वि॒षं नः॑ पि॒तुं कृ॑णु। सु॒षदा॒ योनौ॒ स्वाहा॒ वाड॒ग्नये॑ संवे॒शप॑तये॒ स्वाहा॒ सर॑स्वत्यै यशोभ॒गिन्यै॒ स्वाहा॑॥२०॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अग्ने॑। अ॒द॒ब्धा॒यो॒ऽ इत्य॑दब्धऽआ॒यो। अ॒शी॒त॒म॒। अ॒शि॒त॒मेत्य॑शिऽतम। पा॒हि। मा॒। दि॒द्योः। पा॒हि। प्रसि॑त्या॒ इति॒ प्रऽसि॑त्यै। पा॒हि। दुरि॑ष्ट्या॒ इति॒ दुःऽइ॑ष्ट्यै। पा॒हि। दु॒र॒द्म॒न्या इति॑ दुःऽअद्म॒न्यै॑। अ॒वि॒षम्। नः॒। पि॒तुम्। कृ॒णु॒। सु॒षदा॑। सु॒सदेति॑ सु॒ऽसदा॑। योनौ॑। स्वाहा॑। वाट्। अ॒ग्नये॑। सं॒वे॒शप॑तय॒ इति॑ संवे॒शऽप॑तये। स्वाहा॑। सर॑स्वत्यै। य॒शो॒भ॒गिन्या॒ इति॑ यशःऽभ॒गिन्यै॑। स्वाहा॑ ॥२०॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अग्ने दब्धायो शीतम पाहि मा दिद्योः पाहि प्रसित्यै पाहि दुरिष्ट्यै पाहि दुरद्मन्याऽअविषन्नः पितुङ्कृणु सुषदा योनौ स्वाहा वाडग्नये सँवेशपतये स्वाहा सरस्वत्यै यशोभगिन्यै स्वाहा ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अग्ने। अदब्धायोऽ इत्यदब्धऽआयो। अशीतम। अशितमेत्यशिऽतम। पाहि। मा। दिद्योः। पाहि। प्रसित्या इति प्रऽसित्यै। पाहि। दुरिष्ट्या इति दुःऽइष्ट्यै। पाहि। दुरद्मन्या इति दुःऽअद्मन्यै। अविषम्। नः। पितुम्। कृणु। सुषदा। सुसदेति सुऽसदा। योनौ। स्वाहा। वाट्। अग्नये। संवेशपतय इति संवेशऽपतये। स्वाहा। सरस्वत्यै। यशोभगिन्या इति यशःऽभगिन्यै। स्वाहा॥२०॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 2; मन्त्र » 20
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    भावार्थ - या मंत्रात श्लेषालंकार आहे. जो परमेश्वर, सर्वव्यापक व सर्वांचा रक्षक, उत्तम जन्म देणारा, उत्तम कर्म करविणारा तसेच (सर्व) माणसांना विद्या व उत्तम भोग देणारा आहे त्याचीच सदैव भक्ती केली पाहिजे. या सृष्टीत परमेश्वराने भौतिक अग्नी, सूर्यरूपी अग्नी व विद्युतरूपी अग्नी प्रकट केलेले आहेत. त्या अग्नी विद्येला चांगल्या प्रकारे जाणून व्यवहारात उपयोग केल्यास तो (अग्नी) सर्वप्रकारे रक्षण करतो व सर्व भोगांचे कारण आहे. ज्या यज्ञाग्नीमुळे व सत्यवचनयुक्त अशा वेदवाणीद्वारे उत्तम जन्म मिळतो आणि सर्व पदार्थांचे ज्ञान होते. त्याचा (यज्ञ व वेदवाणी) विद्वानांनी स्वीकार केला पाहिजे व इतरांना त्याचा स्वीकार करावयास लावला पाहिजे. या मंत्रात (नम) व (यज्ञ) ही दोन पदे पूर्वीच्या मंत्रातून घेतलेली आहेत.

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