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  • यजुर्वेद - अध्याय 34/ मन्त्र 45
    ऋषिः - भरद्वाज ऋषिः देवता - द्यावापृथिव्यौ देवते छन्दः - निचृज्जगती स्वरः - निषादः
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    घृ॒तव॑ती॒ भुव॑नानामभि॒श्रियो॒र्वी पृ॒थ्वी म॑धु॒दुघे॑ सु॒पेश॑सा।द्यावा॑पृथि॒वी वरु॑णस्य॒ धर्म॑णा॒ विष्क॑भितेऽअ॒जरे॒ भूरि॑रतेसा॥४५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    घृ॒तवती॒ इति॑ घृ॒तऽव॑ती। भुव॑नानाम्। अ॒भि॒श्रियेत्य॑भि॒ऽश्रिया॑। उ॒र्वीऽइत्यु॒र्वी। पृ॒थ्वीऽइति॑ पृ॒थ्वी। म॒धु॒दुघे॒ इति॑ मधु॒ऽदुघे॑। सु॒पेश॒सेति॑ सु॒ऽपेश॑सा ॥ द्यावा॑पृथिवीऽइति॒ द्यावा॑पृथि॒वी। वरु॑णस्य। धर्म॑णा। विस्क॑भिते॒ इति॒ विऽस्क॑भिते। अ॒जरे॒ऽइत्य॒जरे॑। भूरि॑रेत॒सेति॒ भूरि॑ऽरेतसा ॥४५ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    घृतवती भुवनानामभिश्रियोर्वी पृथ्वी मधुदुघे सुपेशसा । द्यावापृथिवी वरुणस्य धर्मणा विष्कभिते अजरे भूरिरेतसा ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    घृतवती इति घृतऽवती। भुवनानाम्। अभिश्रियेत्यभिऽश्रिया। उर्वीऽइत्युर्वी। पृथ्वीऽइति पृथ्वी। मधुदुघे इति मधुऽदुघे। सुपेशसेति सुऽपेशसा॥ द्यावापृथिवीऽइति द्यावापृथिवी। वरुणस्य। धर्मणा। विस्कभिते इति विऽस्कभिते। अजरेऽइत्यजरे। भूरिरेतसेति भूरिऽरेतसा॥४५॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 34; मन्त्र » 45
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    भावार्थ - ज्या परमेश्वराने प्रकाशरूपी व अप्रकाशरूपी असे दोन प्रकारचे जग बनवून व धारण करून त्याचे तो पालन करत आहे. नेहमी माणसांनी त्याचीच उपासना करावी.

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