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  • यजुर्वेद - अध्याय 25/ मन्त्र 2
    ऋषिः - प्रजापतिर्ऋषिः देवता - प्राणादयो देवताः छन्दः - भुरिगतिसक्वर्यौ स्वरः - पञ्चमः
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    वातं॑ प्रा॒णेना॑पा॒नेन॒ नासि॑केऽउपया॒ममध॑रे॒णौष्ठे॑न॒ सदुत्त॑रेण प्रका॒शेनान्त॑रमनूका॒शेन॒ बाह्यं॑ निवे॒ष्यं मू॒र्ध्ना स्त॑नयि॒त्नुं नि॑र्बा॒धेना॒शनिं म॒स्तिष्के॑ण वि॒द्युतं॑ क॒नीन॑काभ्यां॒ कर्णा॑भ्या॒ श्रोत्र॒ श्रोत्रा॑भ्यां॒ कर्णौ॑ तेद॒नीम॑धरक॒ण्ठेना॒पः शु॑ष्कक॒ण्ठेन॑ चि॒त्तं मन्या॑भि॒रदि॑तिꣳ शी॒र्ष्णा निर्ऋ॑तिं॒ निर्ज॑र्जल्पेन शी॒र्ष्णा सं॑क्रो॒शैः प्रा॒णान् रे॒ष्माण॑ स्तु॒पेन॑॥२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वात॑म्। प्रा॒णेन॑। अ॒पा॒नेनेत्य॑पऽआ॒नेन॑। नासि॑के॒ इति॒ नासि॑के। उ॒प॒या॒ममित्यु॑प॒ऽया॒मम्। अध॑रेण। ओष्ठे॑न। सत्। उत्त॑रे॒णेत्युत्ऽत॑रेण। प्र॒का॒शेनेति॑ प्रऽका॒शेन॑। अन्त॑रम्। अ॒नू॒का॒शेन॑। अ॒नु॒का॒शेनेत्य॑नुऽका॒शेन॑। बाह्य॑म्। नि॒वे॒ष्यमिति॑ निऽवे॒ष्यम्। मू॒र्ध्ना। स्त॒न॒यि॒त्नुम्। नि॒र्बा॒धेने॒ति॑ निःऽबा॒धेन॑। अ॒शनि॑म्। म॒स्तिष्के॑ण। वि॒द्युत॒मिति॑ वि॒ऽद्युत॑म्। क॒नीन॑काभ्याम्। कर्णा॑भ्याम्। श्रोत्र॑म्। श्रोत्रा॑भ्याम्। कर्णौ॑। ते॒द॒नीम्। अ॒ध॒र॒क॒ण्ठेनेत्य॑धरऽक॒ण्ठेन॑। अ॒पः। शु॒ष्क॒क॒ण्ठेनेति॑ शुष्कऽक॒ण्ठेन॑। चि॒त्तम्। मन्या॑भिः ॥ अदि॑तिम्। शी॒र्ष्णा। निर्ऋ॑ति॒मिति॒ निःऽऋ॑तिम्। निर्ज॑र्जल्पे॒नेति॒ निःऽज॑र्जल्पेन। शी॒र्ष्णा। स॒ङ्क्रो॒शैरिति॑ सम्ऽक्रो॒शैः। प्रा॒णान्। रे॒ष्माण॑म्। स्तु॒पेन॑ ॥२ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वातम्प्राणेनापानेन नसिकेऽउपयाममधरेणौष्ठेन सदुत्तरेण प्रकाशेनान्तरमनूकाशेन बाह्व्यन्निवेष्यम्मूर्ध्ना स्तनयित्नुन्निर्बाधेनाशनिम्मस्तिष्केण विद्युतङ्कनीनकाभ्याङ्कर्णाभ्याँ श्रोत्रँ श्रोत्राभ्याङ्कर्णा तेदनीमधरकण्ठेनापः शुष्ककण्ठेन चित्तम्मन्याभिरदितिँ शीर्ष्णानिरृतिन्निर्जर्जल्पेन शीर्ष्णा सङ्क्रोशैः प्राणान्रेष्माणँ स्तुपेन् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    वातम्। प्राणेन। अपानेनेत्यपऽआनेन। नासिके इति नासिके। उपयाममित्युपऽयामम्। अधरेण। ओष्ठेन। सत्। उत्तरेणेत्युत्ऽतरेण। प्रकाशेनेति प्रऽकाशेन। अन्तरम्। अनूकाशेन। अनुकाशेनेत्यनुऽकाशेन। बाह्यम्। निवेष्यमिति निऽवेष्यम्। मूर्ध्ना। स्तनयित्नुम्। निर्बाधेनेति निःऽबाधेन। अशनिम्। मस्तिष्केण। विद्युतमिति विऽद्युतम्। कनीनकाभ्याम्। कर्णाभ्याम्। श्रोत्रम्। श्रोत्राभ्याम्। कर्णौ। तेदनीम्। अधरकण्ठेनेत्यधरऽकण्ठेन। अपः। शुष्ककण्ठेनेति शुष्कऽकण्ठेन। चित्तम्। मन्याभिः॥ अदितिम्। शीर्ष्णा। निर्ऋतिमिति निःऽऋतिम्। निर्जर्जल्पेनेति निःऽजर्जल्पेन। शीर्ष्णा। सङ्क्रोशैरिति सम्ऽक्रोशैः। प्राणान्। रेष्माणम्। स्तुपेन॥२॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 25; मन्त्र » 2
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    पदार्थ -
    পদার্থঃ–হে জানিবার ইচ্ছুকগণ! আমার উপদেশের গ্রহণ দ্বারা তুমি (প্রাণেন) প্রাণ ও (অপানেন) অপান দ্বারা (বাতম্) পবন ও (নাসিকে) নাসিকাছিদ্রগুলি এবং (উপয়ামম্) প্রাপ্ত নিয়মের (অধরেণ) নিম্নের (ওষ্ঠেন) ওষ্ঠ দ্বারা (উত্তরেণ) উপরের (প্রকাশেন) প্রকাশরূপ ওষ্ঠ দ্বারা (সদন্তরম্) মধ্যে বিদ্যমান মুখাদি স্থানকে (অনূকাশেন) অনুপ্রকাশিত অঙ্গ দ্বারা (বাহ্যম্) বাহিরের অঙ্গকে (মূর্ধ্না) মস্তক দ্বারা (নিবেষ্যম্) যাহা নিশ্চয়পূর্বক ব্যাপ্ত হওয়ার যোগ্য উহাকে (নির্বাধেন) নিরন্তর তাড়নার হেতু সহ (স্তনয়িত্নুম্) শব্দকারক (অশনিম্) বিদ্যুৎকে (মস্তিষ্কেণ) শিরের মজ্জাতন্তু সমূহ দ্বারা (বিদ্যুতম্) অতি প্রকাশমান বিদ্যুৎ কে (কনীনকাভ্যাম্) প্রদীপ্ত হইয়া (কর্ণাভ্যাম্) শ্রবণ-সাধক পবন দ্বারা (কর্ণৌ) যদ্দ্বারা শ্রবণ করে সেই কর্ণকে এবং (শ্রোত্রাভ্যাম্) যে গোলক ছিদ্র দ্বারা শ্রবণ করে তদ্দ্বারা (শ্রোত্রম্) শ্রবণেন্দ্রিয় এবং (তেদনীম্) শ্রবণ করিবার ক্রিয়া (অধরকণ্ঠেন) কণ্ঠের নিম্ন অংশ দ্বারা (অপঃ) জল (শুষ্ককণ্ঠেন) শুষ্ক কণ্ঠ দ্বারা (চিত্তম্) বিশেষ জ্ঞান সিদ্ধকারী অন্তঃকরণের বৃত্তিকে (মন্যাভিঃ) বিশেষ জ্ঞানের ক্রিয়াগুলির দ্বারা (অদিতিম্) অবিনাশী প্রজ্ঞাকে (শীর্ষ্×া) শির দ্বারা (নিরৃতিম্) ভূমিকে (নির্জর্জল্পেন) নিরন্তর জীর্ণ সর্ব প্রকার পরিপক্ব (শীর্ষ্×া) শির এবং (সংক্রোশৈঃ) সম্যক্ আহ্বান দ্বারা (প্রাণান্) প্রাণকে প্রাপ্ত হউক্ তথা (স্তুপেন) হিংসা দ্বারা (রেষ্মাণম্) হিংসক অবিদ্যাদি রোগের নাশ কর ॥ ২ ॥

    भावार्थ - ভাবার্থঃ–সকল মনুষ্যের উচিত যে, প্রথম অবস্থায় সমস্ত শরীরাদি সাধন দ্বারা শারীরিক ও আত্মিক বলকে উত্তম প্রকার সিদ্ধ করুক এবং অবিদ্যা কুশিক্ষা নিন্দিত স্বভাবযুক্ত রোগের সর্ব প্রকার হনন করুক ॥ ২ ॥

    मन्त्र (बांग्ला) - বাতং॑ প্রা॒ণেনা॑পা॒নেন॒ নাসি॑কেऽউপয়া॒মমধ॑রে॒ণৌষ্ঠে॑ন॒ সদুত্ত॑রেণ প্রকা॒শেনান্ত॑রমনূকা॒শেন॒ বাহ্যং॑ নিবে॒ষ্যং মূ॒র্ধ্না স্ত॑নয়ি॒ত্নুং নি॑র্বা॒ধেনা॒শনিং ম॒স্তিষ্কে॑ণ বি॒দ্যুতং॑ ক॒নীন॑কাভ্যাং॒ কর্ণা॑ভ্যা॒ᳬं শ্রোত্র॒ᳬं শ্রোত্রা॑ভ্যাং॒ কর্ণৌ॑ তেদ॒নীম॑ধরক॒ণ্ঠেনা॒পঃ শু॑ষ্কক॒ণ্ঠেন॑ চি॒ত্তং মন্যা॑ভি॒রদি॑তিꣳ শী॒র্ষ্ণা নির্ঋ॑তিং॒ নির্জ॑র্জল্পেন শী॒র্ষ্ণা সং॑ক্রো॒শৈঃ প্রা॒ণান্ রে॒ষ্মাণ॑ᳬं স্তু॒পেন॑ ॥ ২ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - বাতমিত্যস্য প্রজাপতির্ঋষিঃ । প্রাণাদয়ো দেবতাঃ । ভুরগতিশক্বর্য়ৌ ছন্দসী ।
    পঞ্চমৌ স্বরৌ ॥

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