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ऋग्वेद मण्डल - 7 के सूक्त 100 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 100/ मन्त्र 7
    ऋषिः - वसिष्ठः देवता - विष्णुः छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    वष॑ट् ते विष्णवा॒स आ कृ॑णोमि॒ तन्मे॑ जुषस्व शिपिविष्ट ह॒व्यम् । वर्ध॑न्तु त्वा सुष्टु॒तयो॒ गिरो॑ मे यू॒यं पा॑त स्व॒स्तिभि॒: सदा॑ नः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वष॑ट् । ते॒ । वि॒ष्णो॒ इति॑ । आ॒सः । आ । कृ॒णो॒मि॒ । तत् । मे॒ । जु॒ष॒स्व॒ । शि॒पि॒ऽवि॒ष्ट॒ । ह॒व्यम् । वर्ध॑न्तु । त्वा॒ । सु॒ऽस्तु॒तयः॑ । गिरः॑ । मे॒ । यू॒यम् । पा॒त॒ । स्व॒स्तिऽभिः॑ । सदा॑ । नः॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वषट् ते विष्णवास आ कृणोमि तन्मे जुषस्व शिपिविष्ट हव्यम् । वर्धन्तु त्वा सुष्टुतयो गिरो मे यूयं पात स्वस्तिभि: सदा नः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    वषट् । ते । विष्णो इति । आसः । आ । कृणोमि । तत् । मे । जुषस्व । शिपिऽविष्ट । हव्यम् । वर्धन्तु । त्वा । सुऽस्तुतयः । गिरः । मे । यूयम् । पात । स्वस्तिऽभिः । सदा । नः ॥ ७.१००.७

    ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 100; मन्त्र » 7
    अष्टक » 5; अध्याय » 6; वर्ग » 25; मन्त्र » 7

    पदार्थ -
    पदार्थ- हे (विष्णो) = व्यापक, नाना सैन्यों से घिरे ! नियमों में बद्ध ! (ते) = तेरा (आसः) = स्थापन (वषट्) = सत्कार - पूर्वक (आकृणोमि) = करता हूँ। हे (शिपिविष्ट) = तेजों से युक्त ! सूर्यवत् तेजस्विन् ! तू (मे) = मुझ राष्ट्र जन का (तत् हव्यम् जुषस्व) = वह उपायन, भेंटादि स्वीकार कर (त्वा) = तुझे (मे) = मेरी (सु-स्तुतयः गिरः) = स्तुति में विद्वान् जन वर्धन्तु बढ़ावें । हे विद्वान् पुरुषो! (यूयं सदा स्वस्तिभिः नः पात) = आप सदैव ही उत्तम साधनों से हमारी रक्षा करो।

    भावार्थ - भावार्थ- उस व्यापक परमेश्वर का तेज उसके सृष्टि नियामक नियमों में बसा हुआ है। सभी तेजस्वी पदार्थों में उसी का तेज है। ऐसे तेजस्वी प्रभु की स्तुति करके अपनी वाणियों को पवित्र किया करो। अगले सूक्त का ऋषि वसिष्ठः कुमारो वाग्नेयः तथा देवता पर्जन्य है।

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