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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 12/ मन्त्र 2
    ऋषिः - पर्वतः काण्वः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृदुष्णिक् स्वरः - ऋषभः

    येना॒ दश॑ग्व॒मध्रि॑गुं वे॒पय॑न्तं॒ स्व॑र्णरम् । येना॑ समु॒द्रमावि॑था॒ तमी॑महे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    येन॑ । दश॑ऽग्वम् । अध्रि॑ऽगुम् । वे॒पऽय॑न्तम् । स्वः॑ऽनरम् । येन॑ । स॒मु॒द्रम् । आवि॑थ । तम् । ई॒म॒हे॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    येना दशग्वमध्रिगुं वेपयन्तं स्वर्णरम् । येना समुद्रमाविथा तमीमहे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    येन । दशऽग्वम् । अध्रिऽगुम् । वेपऽयन्तम् । स्वःऽनरम् । येन । समुद्रम् । आविथ । तम् । ईमहे ॥ ८.१२.२

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 12; मन्त्र » 2
    अष्टक » 6; अध्याय » 1; वर्ग » 1; मन्त्र » 2

    पदार्थ -
    [१] गत मन्त्र में वर्णित येन जिस 'सोमपातम मद' से, हे प्रभो! आप (दशग्वम्) = दसवें दश तक जानेवाले, अर्थात् सौ वर्ष तक दीर्घ जीवन को प्राप्त करनेवाले इस आराधक को आविथ रक्षित करते हो (तं ईमहे) = उस मद को हम आप से माँगते हैं। सोमरक्षण के द्वारा उल्लासमय होते हुए हम शतवर्ष जीवी बनें। [२] हे प्रभो! आप जिस मद से (अध्रिगुम्) = अधृतगमनवाले, मार्ग पर चलते समय वासना रूप विघ्नों से न रुक जानेवाले पुरुष को रक्षित करते हो, उसे हम चाहते हैं। जिस मद से आप (वेपयन्तम्) = शत्रुओं को कम्पित करनेवाले पुरुष को रक्षित करते हो, और जिससे (स्वर्णरम्) = प्रकाश की ओर अपने को ले जानेवाले पुरुष को आप रक्षित करते हो, उस मद को हम चाहते हैं। [३] हम उस मद को चाहते हैं (येना) = जिससे आप (समुद्रम्) = [स+मुद्] आनन्दित रहनेवाले पुरुष को रक्षित करते हैं।

    भावार्थ - भावार्थ- सोमरक्षण से जनित उल्लास हमें दीर्घजीवी, अधृतगमन, शत्रुओं को कम्पित करनेवाला, प्रकाश की ओर चलनेवाला व आनन्दमय मनोवृत्तिवाला बनाता है।

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