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  • यजुर्वेद - अध्याय 10/ मन्त्र 2
    ऋषिः - वरुण ऋषिः देवता - वृषा देवता छन्दः - स्वराट ब्राह्मी पङ्क्ति, स्वरः - पञ्चमः
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    वृष्ण॑ऽऊ॒र्मिर॑सि राष्ट्र॒दा रा॒ष्ट्रं मे॑ देहि॒ स्वाहा॑ वृष्ण॑ऽऊर्मिर॑सि राष्ट्र॒दा रा॒ष्ट्रम॒मुष्मै॑ देहि वृषसे॒नोऽसि राष्ट्र॒दा रा॒ष्ट्रं मे॑ देहि॒ स्वाहा॑ वृषसे॒नोऽसि राष्ट्र॒दा रा॒ष्ट्रम॒मुष्मै॑ देहि॥२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वृष्णः॑। ऊ॒र्मिः। अ॒सि॒। रा॒ष्ट्र॒दा इति॑ राष्ट्र॒ऽदाः। रा॒ष्ट्रम्। मे॒। दे॒हि॒। स्वाहा॑। वृष्णः॑। ऊ॒र्मिः। अ॒सि॒। रा॒ष्ट्र॒दा इति॑ राष्ट्रऽदाः। रा॒ष्ट्रम्। अ॒मुष्मै॑। दे॒हि॒। वृ॒ष॒से॒न इति॑ वृषऽसे॒नः। अ॒सि॒। रा॒ष्ट्र॒दा इति॑ राष्ट्र॒ऽदाः। रा॒ष्ट्रम्। मे॒। दे॒हि॒। स्वाहा॑। वृ॒ष॒से॒न इति॑ वृषऽसे॒नः। अ॒सि॒। रा॒ष्ट्र॒दा इति॑ राष्ट्र॒ऽदाः। रा॒ष्ट्रम्। अ॒मुष्मै॑। दे॒हि॒ ॥२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वृष्ण ऽऊर्मिरसि राष्ट्रदा राष्ट्रम्मे देहि स्वाहा वृष्णऽऊर्मिरसि राष्ट्रदा राष्ट्रममुष्मै देहि वृषसेनोसि राष्ट्रदा राष्ट्रम्मे देहि स्वाहा । वृषसेनोसि राष्ट्रदा राष्ट्रममुष्मै देह्यर्थेत स्थ ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    वृष्णः। ऊर्मिः। असि। राष्ट्रदा इति राष्ट्रऽदाः। राष्ट्रम्। मे। देहि। स्वाहा। वृष्णः। ऊर्मिः। असि। राष्ट्रदा इति राष्ट्रऽदाः। राष्ट्रम्। अमुष्मै। देहि। वृषसेन इति वृषऽसेनः। असि। राष्ट्रदा इति राष्ट्रऽदाः। राष्ट्रम्। मे। देहि। स्वाहा। वृषसेन इति वृषऽसेनः। असि। राष्ट्रदा इति राष्ट्रऽदाः। राष्ट्रम्। अमुष्मै। देहि॥२॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 10; मन्त्र » 2
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    पदार्थ -

    प्रस्तुत मन्त्र में पुरोहित प्रजा से कह रहा है कि तुम राष्ट्र को पहले मुझे सौंपो और फिर इस राजा को। राष्ट्र को केवल क्षत्रिय के हाथों में नहीं सौंपना है, उसे ब्राह्मण तथा क्षत्रिय दोनों के हाथों में सौंपना ही ठीक है। १. हे प्रजे! तू ( वृष्णः ) = अग्नि व सोम का [ शक्ति व शान्ति का ] ( ऊर्मिः ) = [ ऊर्णुञ् आच्छादने ] अपने अन्दर आच्छादन करनेवाली है, ( राष्ट्रदाः ) = राष्ट्र को देनेवाली है। प्रजा ही तो राष्ट्र को बनाती है। यह इस राष्ट्र को कुछ व्यक्तियों के हाथ में सौंपती है। पुरोहित कह रहा है कि ( राष्ट्रम् ) = इस राष्ट्र को ( मे देहि ) = तुम मुझे सौंपो। ( स्वाहा ) = और स्व का हा = त्याग करो, अर्थात् उचित कर देनेवाली बनो। ( वृष्णः ऊर्मिः असि ) = हे प्रजे! तू अग्नि व सोम की आच्छादिका है, ( राष्ट्रदाः ) = राष्ट्र को देनेवाली है। ( राष्ट्रम् ) = राष्ट्र को ( अमुष्मै ) = उस सभापतिरूप से चुने गये राज्याभिषिक्त व्यक्ति के लिए ( देहि ) = सौंप। 

    २. यह राष्ट्र का पुरुषवर्ग ( वृषसेनः असि ) = शक्तिशाली सेनावाला है। राष्ट्र के नवयुवकों में से ही तो शक्तिशाली सेना का निर्माण होना है। हे वृषसेन! तू ( राष्ट्रदाः ) = राष्ट्र को देनेवाला है। बिना सेना के भी राष्ट्र का निर्माण नहीं हो पाता। ( राष्ट्रम् ) = राष्ट्र को ( मे ) = मुझ पुरोहित के लिए ( देहि ) = तू सौंप और ( स्वाहा ) = स्वार्थ का त्याग करके राष्ट्र को शक्तिशाली बना। हे पुरुषवर्ग! तू ( वृषसेनः असि ) = शक्तिशाली सेनावाला है। ( राष्ट्रदाः ) = राष्ट्र को देनेवाला है। ( राष्ट्रम् ) = राष्ट्र को ( अमुष्मै ) = अमुक राज्याभिषिक्त पुरुष के लिए ( देहि ) = सौंप। 

    ३. विधेय ‘प्रजा’ शब्द के स्त्रीलिंग होते हुए भी ‘वृषसेनः’ यह पुल्लिंग का प्रयोग इसलिए है कि सेना पुरुषों में से ही एकत्र होनी है। 

    भावार्थ -

    भावार्थ — प्रजा अपने में वृषन्, अर्थात् अग्नि व सोम दोनों तत्त्वों को रक्खे हुए है। प्रजा में उत्साह भी चाहिए, शान्ति भी। प्रजा को ही अपने में से सेना को जुटाना है। यह प्रजा राष्ट्र को पुरोहित तथा सभापति के हाथों में सौंपती है।

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