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  • यजुर्वेद - अध्याय 10/ मन्त्र 4
    ऋषिः - वरुण ऋषिः देवता - सूर्य्यादयो मन्त्रोक्ता देवताः छन्दः - जगती,स्वराट पङ्क्ति,स्वराट संकृति,भूरिक आकृति,भूरिक त्रिष्टुप् स्वरः - मध्यमः, पञ्चमः, स्वरः
    2

    सूर्य॑त्वचस स्थ राष्ट्र॒दा रा॒ष्ट्रं मे॑ दत्त॒ स्वाहा॒ सूर्य॑त्वचस स्थ राष्ट्र॒दा रा॒ष्ट्रम॒मुष्मै॑ दत्त॒ सूर्य॑वर्चस स्थ राष्ट्र॒दा रा॒ष्ट्रं मे॑ दत्त॒ स्वाहा॒ सूर्य॑वर्चस स्थ राष्ट्र॒दा रा॒ष्ट्रम॒मुष्मै॑ दत्त॒ मान्दा॑ स्थ राष्ट्र॒दा रा॒ष्ट्रं मे॑ दत्त॒ स्वाहा॒ मान्दा॑ स्थ राष्ट्र॒दा रा॒ष्ट्रम॒मुष्मै॑ दत्त व्रज॒क्षित॑ स्थ राष्ट्र॒दा रा॒ष्ट्रं मे॑ दत्त॒ स्वाहा॑ व्रज॒क्षित॑ स्थ राष्ट्र॒दा रा॒ष्ट्रम॒मुष्मै॑ दत्त॒ वाशा॑ स्थ राष्ट्र॒दा रा॒ष्ट्रं मे॑ दत्त॒ स्वाहा॒ वाशा॑ स्थ राष्ट्र॒दा रा॒ष्ट्रम॒मुष्मै॑ दत्त॒ शवि॑ष्ठा स्थ राष्ट्र॒दा रा॒ष्ट्रं मे दत्त॒ स्वाहा शवि॑ष्ठा स्थ राष्ट्र॒दा रा॒ष्ट्रम॒मुष्मै॑ दत्त॒ शक्व॑री स्थ राष्ट्र॒दा रा॒ष्ट्रं मे॑ दत्त॒ स्वाहा॑ शक्व॑री स्थ राष्ट्र॒दा रा॒ष्ट्रम॒मुष्मै॑ दत्त॒ जन॒भृत॑ स्थ राष्ट्र॒दा रा॒ष्ट्रं मे॑ दत्त॒ स्वाहा॒ जन॒भृत॑ स्थ राष्ट्र॒दा रा॒ष्ट्रम॒मुष्मै॑ दत्त विश्व॒भृत॑ स्थ राष्ट्र॒दा रा॒ष्ट्रं मे॑ दत्त॒ स्वाहा॑ विश्व॒भृत॑ स्थ राष्ट्र॒दा रा॒ष्ट्रम॒मुष्मै॑ द॒त्तापः॑ स्व॒राज॑ स्थ राष्ट्र॒दा राष्ट्र॒म॒मुष्मै॑ दत्त। मधु॑मती॒र्मधु॑मतीभिः पृच्यन्तां॒ महि॑ क्ष॒त्रं क्ष॒त्रिया॑य वन्वा॒नाऽअना॑धृष्टाः सीदत स॒हौज॑सो॒ महि॑ क्ष॒त्रं क्ष॒त्रिया॑य॒ दध॑तीः॥४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सूर्यत्वचस॒ इति॒ सूर्य॑ऽत्वचसः। स्थ॒। रा॒ष्ट्र॒दा इति॑ राष्ट्र॒ऽदाः। रा॒ष्ट्रम्। मे॒। द॒त्त॒। स्वाहा॑। सूर्यत्वचस॒ इति॒ सूर्यऽत्व॒चसः। स्थ॒। रा॒ष्ट्र॒दा इति॑ राष्ट्र॒ऽदाः। रा॒ष्ट्रम्। अ॒मुष्मै॑। द॒त्त॒। सूर्यवर्चस॒ इति॒ सूर्य॑ऽवर्चसः। स्थ॒। रा॒ष्ट्र॒दा इति॑ राष्ट्र॒ऽदाः। रा॒ष्ट्रम्। मे॒। द॒त्त॒। स्वाहा॑। सूर्यवर्चस॒ इति॒ सूर्य॑ऽवर्चसः। स्थ॒। रा॒ष्ट्र॒दा इति॑ राष्ट्र॒ऽदाः। रा॒ष्ट्रम्। अ॒मुष्मै॑। द॒त्त॒। मान्दाः॑। स्थ॒। रा॒ष्ट्र॒दा इति॑ राष्ट्र॒दाः। रा॒ष्ट्रम्। मे॒। द॒त्त॒। स्वाहा॑। मान्दाः॑। स्थः॒। रा॒ष्ट्र॒दा इति॑ राष्ट्र॒ऽदाः। रा॒ष्ट्रम्। अ॒मुष्मै॑। द॒त्त॒। व्र॒ज॒क्षित॒ इति॑ व्र॒ज॒ऽक्षितः। स्थ॒। रा॒ष्ट्र॒दा इति॑ राष्ट्र॒ऽदाः। रा॒ष्ट्रम्। मे॒। द॒त्त। स्वाहा॑। व्र॒ज॒क्षित॒ इति॑ व्रज॒ऽक्षितः॑। स्थ॒। रा॒ष्ट्र॒दा इति॑ राष्ट्र॒ऽदाः। रा॒ष्ट्रम्। अ॒मुष्मै॑। द॒त्त॒। वाशाः॑। स्थ॒। रा॒ष्ट्र॒दा इति॑ राष्ट्र॒ऽदाः। रा॒ष्ट्रम्। मे॒। द॒त्त॒। स्वाहा॑। वाशाः॑। स्थ॒। रा॒ष्ट्र॒दा इति॑ राष्ट्र॒ऽदाः। रा॒ष्ट्रम्। अ॒मुष्मै॑। द॒त्त॒। शवि॑ष्ठाः। स्थ॒। रा॒ष्ट्र॒दा इति॑ राष्ट्र॒ऽदाः। रा॒ष्ट्रम्। मे॒। द॒त्त॒। स्वाहा॑। शवि॑ष्ठाः। स्थ॒। रा॒ष्ट्र॒दा इति॑ राष्ट्र॒ऽदाः। रा॒ष्ट्रम्। अ॒मुष्मै॑। द॒त्त॒। शक्व॑रीः। स्थ॒। रा॒ष्ट्र॒दा इति॑ राष्ट्र॒ऽदाः। रा॒ष्ट्रम्। मे॒। द॒त्त॒। स्वाहा॑। शक्व॑रीः। स्थ॒। राष्ट्रदा इति॑ राष्ट्र॒ऽदाः। रा॒ष्ट्रम्। अ॒मुष्मै॑। द॒त्त॒। ज॒न॒भृत॒ इति॑ जन॒ऽभृतः॑। स्थ॒। रा॒ष्ट्र॒दा इति॑ राष्ट्र॒ऽदाः। रा॒ष्ट्रम्। मे॒। द॒त्त॒। स्वाहा॑। ज॒न॒भृत॒ इति॑ जन॒ऽभृतः॑। स्थ॒। रा॒ष्ट्र॒दा इति॑ राष्ट्र॒ऽदाः। रा॒ष्ट्रम्। अ॒मुष्मै॑। द॒त्त॒। वि॒श्व॒भृत॒ इति विश्व॒ऽभृतः॑। स्थ॒। रा॒ष्ट्र॒दा इति॑ राष्ट्र॒ऽदाः। रा॒ष्ट्रम्। मे॒। द॒त्त॒। स्वाहा॑। वि॒श्व॒भृत॒ इति॑ विश्व॒ऽभृतः॑। स्थ॒। रा॒ष्ट्र॒दा इति॑ राष्ट्र॒ऽदाः। रा॒ष्ट्रम्। अ॒मुष्मै॑। द॒त्त॒। आपः॑। स्व॒राज॒ इति॑ स्व॒ऽराजः॑। स्थ॒। रा॒ष्ट्र॒दा इति॑ राष्ट्र॒ऽदाः। रा॒ष्ट्रम्। अ॒मुष्मै॑। द॒त्त॒। मधु॑मती॒रिति॒ मधु॑ऽमतीः। मधु॑मतीभि॒रिति॒ मधु॑मतीऽभिः। पृ॒च्य॒न्ता॒म्। महि॑। क्ष॒त्रम्। क्ष॒त्रियाय॑। व॒न्वा॒नाः। अना॑धृष्टाः। सी॒द॒त॒। स॒हौज॑स॒ इति॑ स॒हऽओ॑जसः। महि॑। क्ष॒त्रम्। क्ष॒त्रिया॑य। दध॑तीः ॥४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सूर्यत्वचस स्थ राष्ट्रदा राष्ट्रम्मे दत्त स्वाहा सूर्यत्वचस स्थ राष्ट्रदा राष्ट्रममुष्मै दत्त सूर्यवर्चस स्थ राष्ट्रदा राष्ट्रम्मे दत्त स्वाहा सूर्यवर्चस स्थ राष्ट्रदा राष्ट्रममुष्मै दत्त मान्दा स्थ राष्ट्रदा राष्ट्रम्मे दत्त स्वाहा मान्दा स्थ राष्ट्रदा राष्ट्रममुष्मै दत्त व्रजक्षित स्थ राष्ट्रदा राष्ट्रम्मे दत्त स्वाहा व्रजक्षित स्थ राष्ट्रदा राष्ट्रममुष्मै दत्त वाशा स्थ राष्ट्रदा राष्ट्रम्मे दत्त स्वाहा वाशा स्थ राष्ट्रदा राष्ट्रममुष्मै दत्त शविष्ठा स्थ राष्ट्रदा राष्ट्रम्मे दत्त स्वाहा शविष्ठा स्थ राष्ट्रदा राष्ट्रममुष्मै दत्त शक्वरी स्थ राष्ट्रदा राष्ट्रम्मे दत्त स्वाहा शक्वरी स्थ राष्ट्रदा राष्ट्रममुष्मै दत्त जनभृत स्थ राष्ट्रदा राष्ट्रम्मे दत्त स्वाहा जनभृत स्थ राष्ट्रदा राष्ट्रममुष्मै दत्त विश्वभृत स्थ राष्ट्रदा राष्ट्रम्मे दत्त स्वाहा विश्वभृत स्थ राष्ट्रदा राष्ट्रममुष्मै दत्तापः स्वराज स्थ राष्ट्रदा राष्ट्रममुष्मै दत्त । मधुमतीर्मधुमतीभिः पृच्यन्ताम्महि क्षत्रङ्क्षत्रियाय वन्वानाः ऽअनाधृष्टाः सीदत सहौजसो महि क्षत्रङ्क्षत्रियाय दधतीः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    सूर्यत्वचस इति सूर्यऽत्वचसः। स्थ। राष्ट्रदा इति राष्ट्रऽदाः। राष्ट्रम्। मे। दत्त। स्वाहा। सूर्यत्वचस इति सूर्यऽत्वचसः। स्थ। राष्ट्रदा इति राष्ट्रऽदाः। राष्ट्रम्। अमुष्मै। दत्त। सूर्यवर्चस इति सूर्यऽवर्चसः। स्थ। राष्ट्रदा इति राष्ट्रऽदाः। राष्ट्रम्। मे। दत्त। स्वाहा। सूर्यवर्चस इति सूर्यऽवर्चसः। स्थ। राष्ट्रदा इति राष्ट्रऽदाः। राष्ट्रम्। अमुष्मै। दत्त। मान्दाः। स्थ। राष्ट्रदा इति राष्ट्रदाः। राष्ट्रम्। मे। दत्त। स्वाहा। मान्दाः। स्थः। राष्ट्रदा इति राष्ट्रऽदाः। राष्ट्रम्। अमुष्मै। दत्त। व्रजक्षित इति व्रजऽक्षितः। स्थ। राष्ट्रदा इति राष्ट्रऽदाः। राष्ट्रम्। मे। दत्त। स्वाहा। व्रजक्षित इति व्रजऽक्षितः। स्थ। राष्ट्रदा इति राष्ट्रऽदाः। राष्ट्रम्। अमुष्मै। दत्त। वाशाः। स्थ। राष्ट्रदा इति राष्ट्रऽदाः। राष्ट्रम्। मे। दत्त। स्वाहा। वाशाः। स्थ। राष्ट्रदा इति राष्ट्रऽदाः। राष्ट्रम्। अमुष्मै। दत्त। शविष्ठाः। स्थ। राष्ट्रदा इति राष्ट्रऽदाः। राष्ट्रम्। मे। दत्त। स्वाहा। शविष्ठाः। स्थ। राष्ट्रदा इति राष्ट्रऽदाः। राष्ट्रम्। मे। दत्त। स्वाहा। शक्वरीः। स्थ। राष्ट्रदा इति राष्ट्रऽदाः। राष्ट्रम्। मे। दत्त। स्वाहा। शक्वरीः। स्थ। राष्ट्रदा इति राष्ट्रऽदाः। राष्ट्रम्। अमुष्मै। दत्त। जनभृत इति जनऽभृतः। स्थ। राष्ट्रदा इति राष्ट्रऽदाः। राष्ट्रम्। मे। दत्त। स्वाहा। जनभृत इति जनऽभृतः। स्थ। राष्ट्रदा इति राष्ट्रऽदाः। राष्ट्रम्। मे। दत्त। स्वाहा। विश्वभृत इति विश्वऽभृतः। स्थ। राष्ट्रदा इति राष्ट्रऽदाः। राष्ट्रम्। मे। दत्त। स्वाहा। विश्वभृत इति विश्वऽभृतः। स्थ। राष्ट्रदा इति राष्ट्रऽदाः। राष्ट्रम्। अमुष्मै। दत्त। आपः। स्वराज इति स्वऽराजः। स्थ। राष्ट्रदा इति राष्ट्रऽदाः। राष्ट्रम्। अमुष्मै। दत्त। मधुमतीरिति मधुऽमतीः। मधुमतीभिरिति मधुमतीऽभिः। पृच्यन्ताम्। महि। क्षत्रम्। क्षत्रियाय। वन्वानाः। अनाधृष्टाः। सीदत। सहौजस इति सहऽओजसः। महि। क्षत्रम्। क्षत्रियाय। दधतीः॥४॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 10; मन्त्र » 4
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    पदार्थ -

    गत मन्त्र के अनुसार प्रस्तुत मन्त्र में भी कहते हैं कि हे प्रजाओ! आप

    १.( सूर्यत्वचसः स्थ ) = सूर्य के समान देदीप्यमान त्वचावाली हो। स्वास्थ्य की दीप्ति आपके सारे शरीर को दीप्त कर रही है।

    २. ( सूर्यवर्चसः स्थ ) = सूर्य के समान वर्चस्वाली आप हो। उपनिषद् में कहते हैं कि ‘प्राणः प्रजानामुदयत्येष सूर्यः’—यह सूर्य प्रजाओं का प्राण ही है। आप भी उसी प्रकार प्राणशक्ति-सम्पन्न हो। 

    ३. ( मान्दाः स्थ ) = सदा प्रसन्न रहनेवाली हो। 

    ४. ( व्रजक्षितः स्थः ) = [ व्रज गतौ ] सदा गति में निवास करनेवाली हो—सदा क्रियाशील जीवनवाली हो अथवा [ व्रजान् गवादिस्थित्यर्थान् देशान् क्षियन्ति निवासयन्तिद० ] गौ आदि पशुओं के स्थानों को वसानेवाले हो। 

    ५. ( वाशाः स्थ ) [ वाशृ शब्दे ] = सदा शुभ शब्दों—वेदमन्त्रों का उच्चारण करनेवाले हो।

     ६. ( शविष्ठाः स्थ ) = अत्यन्त बल-सम्पन्न हो [ शवस् = बल ] ७. ( शक्वरीःस्थ ) = कार्यों को करने में शक्तिशाली हो। 

    ८. अपनी इस क्रियाशीलता के द्वारा ही ( जनभृतःस्थ ) = सब लोगों का धारण करनेवाली हो। 

    ९. लोगों का ही क्या, आप ( विश्वभृतः स्थ ) = सारे संसार का भरण व पोषण कर रही हो। आपके कार्य विश्व के कल्याण के उद्देश्य से प्रेरित होकर हो रहे हैं। इस प्रकार बनकर आप ( राष्ट्रदाः ) = एक सच्चे राष्ट्र को देनेवाली हो, ( राष्ट्रं मे दत्त ) = तुम राष्ट्र को मुझ पुरोहित के लिए दो। ( स्वाहा ) = कर के रूप में उचित धन का त्याग करनेवाली बनो तथा ( राष्ट्रदाः ) = राष्ट्र के देनेवाली तुम ( अमुष्मै राष्ट्रं दत्त ) = उस चुने गये राज्याभिषिक्त राजा के लिए राष्ट्र को दो। 

    १०. आप ( स्वराजः ) = स्वयं अपना शासन करनेवाली ( आपः ) = सदा कर्मों में व्याप्त हो। ( राष्ट्रदाः ) = राष्ट्र को देनेवाली आप ( राष्ट्रं अमुष्मै दत्त ) = अमुक चुने गये सभापति के लिए राष्ट्र को दो। यहाँ इस अन्तिम वाक्य में केवल राजा के लिए राष्ट्र को सौंपने का विधान है। वस्तुतः शासन-भार राजा पर ही तो पड़ता है। पुरोहित राजा को मार्ग से विचलित न होने की प्रेरणा देता है। 

    ११. ( मधुमतीः ) = माधुर्यवाली प्रजाएँ ( मधुमतीभिः ) = माधुर्यवाली प्रजाओं के साथ ( पृच्यन्ताम् ) = संपृक्त हों, अर्थात् प्रजाओं का परस्पर प्रेम हो, पारस्परिक प्रेम न होने पर राष्ट्र का बल क्षीण हो जाता है, अतः प्रजाएँ परस्पर मधुर व्यवहारवाली होती हुई ( क्षत्रियाय ) = राष्ट्र को आघातों से बचानेवाले राजा के लिए ( महि क्षत्रम् ) = महान् बल को ( वन्वानाः ) = संभक्त करानेवाली हों। राजा के बल को ये परस्पर एकता से रहती हुई ही बढ़ा सकती हैं। 

    १२. पुरोहित इन प्रजाओं से कहता है कि ( सह ओजसः ) = एकता के बलवाली तुम ( क्षत्रियाय ) = राष्ट्र को आघातों से बचानेवाले राजा के लिए ( महि क्षत्रं ) = महनीय बल को ( दधतीः ) = धारण करती हुई तुम ( अनाधृष्टाः ) = किन्ही भी शत्रुओं से धर्षित न होती हुई ( सीदत ) = इस राष्ट्र में विराजमान होओे।

    भावार्थ -

    भावार्थ — प्रजा शक्तिशाली व माधुर्य से पूर्ण हो, परस्पर मेल से राष्ट्र की शक्ति को बढ़ानेवाली हो। ऐसी स्थिति में ही यह शत्रुओं से अनाधृष्य होती है।

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