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  • यजुर्वेद - अध्याय 26/ मन्त्र 5
    ऋषिः - रम्याक्षी ऋषिः देवता - सूर्यो देवता छन्दः - भुरिग् जगती स्वरः - निषादः
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    इन्द्रा या॑हि वृत्रह॒न् पिबा॒ सोम॑ꣳ शतक्रतो। गोम॑द्भिर्ग्राव॑भिः सु॒तम्।उ॒प॒या॒मगृ॑हीतो॒ऽसीन्द्रा॑य त्वा गोम॑तऽए॒ष ते॒ योनि॒रिन्द्रा॑य त्वा गोम॑ते॥५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इन्द्र॑। आ। या॒हि॒। वृ॒त्र॒ह॒न्निति॑ वृत्रऽहन्। पिब॑। सोम॑म्। श॒त॒क्र॒तो॒ इति॑ शतऽक्रतो। गोम॑द्भि॒रिति॒ गोम॑त्ऽभिः। ग्राव॑भि॒रिति॒ ग्राव॑ऽभिः। सु॒तम्। उ॒प॒या॒मगृ॑हीत॒ इत्यु॑पया॒मऽगृ॑हीतः। अ॒सि॒। इन्द्रा॑य। त्वा॒। गोम॑त॒ इति॒ गोऽम॑ते। ए॒षः। ते॒। योनिः॑। इन्द्रा॑य। त्वा॒। गोम॑त॒ इति॒ गोऽम॑ते ॥५ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इन्द्रायाहि वृत्रहन्पिबा सोमँ शतक्रतो । गोमद्भिर्ग्रावभिः सुतम् । उपयामगृहीतोसीन्द्राय त्वा गोमते ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    इन्द्र। आ। याहि। वृत्रहन्निति वृत्रऽहन्। पिब। सोमम्। शतक्रतो इति शतऽक्रतो। गोमद्भिरिति गोमत्ऽभिः। ग्रावभिरिति ग्रावऽभिः। सुतम्। उपयामगृहीत इत्युपयामऽगृहीतः। असि। इन्द्राय। त्वा। गोमत इति गोऽमते। एषः। ते। योनिः। इन्द्राय। त्वा। गोमत इति गोऽमते॥५॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 26; मन्त्र » 5
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    पदार्थ -
    १. गतमन्त्र के ही भाव को परिवर्तित शब्दों में रम्याक्षि इस प्रकार प्रकट करता है-हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशाली प्रभो! (वृत्रहन्) = ज्ञान के आवरणभूत काम को विध्वस्त करनेवाले प्रभो ! (आयाहि) = आप यहाँ मेरे हृदयाकाश में आइए । २. उत्तर देते हुए प्रभु कहते हैं कि (शतक्रतो:) = सैकड़ों प्रज्ञानोंवाले व शतवर्षपर्यन्त यज्ञ को चलानेवाले रम्याक्षे । (सोमं पिब) = तू सोम का पान करनेवाला बन। यह सोम (गोमद्भिः) वेदवाणियों का अध्ययन करनेवाले (ग्रावभिः) = स्तोताओं से सुतम् उत्पादित किया जाता है। सोम की रक्षा के लिए आवश्यक है कि हम वेदवाणियों का सतत अध्ययन करें । ३. अब रम्याक्षि कहता है कि हे प्रभो! आप (उपयामगृहीतः असि) = उपासना के द्वारा प्राप्त यम-नियमों से जाने जाते हो। हे वेद । (त्वा) = मैं तुझे (गोमते इन्द्राय) = उस वेदवाणियोंवाले ज्ञानरूप परमैश्वर्य सम्पन्न प्रभु की प्राप्ति के लिए ही प्राप्त करता हूँ। (एषः) = यह प्रभु (ते) = तेरा (योनिः) = उत्पत्तिस्थान है। मैं उस (गोमते इन्द्राय) = वेदवाणियोंवाले प्रभु के लिए ही (त्वा) = तुझे प्राप्त करता हूँ।

    भावार्थ - भावार्थ- प्रभु की प्राप्ति के लिए सोम की रक्षा आवश्यक है, उस सोमरक्षा के लिए हम वेदज्ञान को प्राप्त करनेवाले बनें और प्रभु का स्तवन करनेवाले हों। वेदज्ञान भी प्रभु की प्राप्ति के लिए साधन होता है।

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