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  • यजुर्वेद - अध्याय 3/ मन्त्र 15
    ऋषिः - वामदेव ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - भूरिक् त्रिष्टुप्, स्वरः - धैवतः
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    अ॒यमि॒ह प्र॑थ॒मो धा॑यि धा॒तृभि॒र्होता॒ यजि॑ष्ठोऽअध्व॒रेष्वीड्यः॑। यमप्न॑वानो॒ भृग॑वो विरुरु॒चुर्वने॑षु चि॒त्रं वि॒भ्वं वि॒शेवि॑शे॥१५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒यम्। इ॒ह। प्र॒थ॒मः। धा॒यि॒। धा॒तृभि॒रिति॑ धा॒तृऽभिः॑। होता॑। यजि॑ष्ठः। अ॒ध्व॒रेषु॑। ईड्यः॑। यम्। अप्न॑वानः। भृग॑वः। वि॒रु॒रु॒चुरिति॑ विऽरुरु॒चुः। वने॑षु। चि॒त्रम्। विभ्व᳕मिति॑ वि॒ऽभ्व॒म्। वि॒शेवि॑श॒ इति॑ वि॒शेऽवि॑शे ॥१५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अयमिह प्रथमो धायि धातृभिर्हाता यजिष्ठो अध्वरेष्वीड्यः । यमप्नवानो भृगवो विरुरुचुर्वनेषु चित्रँविभ्वँविशेविशे ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अयम्। इह। प्रथमः। धायि। धातृभिरिति धातृऽभिः। होता। यजिष्ठः। अध्वरेषु। ईड्यः। यम्। अप्नवानः। भृगवः। विरुरुचुरिति विऽरुरुचुः। वनेषु। चित्रम्। विभ्वमिति विऽभ्वम्। विशेविश इति विशेऽविशे॥१५॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 3; मन्त्र » 15
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    पदार्थ -

    १. ( अयम् ) = यह प्रभु ( प्रथमः ) = सर्वश्रेष्ठ है—या अधिक-से-अधिक विस्तारवाला है [ प्रथ विस्तारे ]। ( इह ) = इस हृदयान्तरिक्ष में ( धातृभिः ) = धारण-पोषण करनेवाले लोगों से ( धायि ) = स्थापित किया जाता है। वस्तुतः प्रभु का धारण वही करते हैं जो अपने ही पालन में फँस जानेवाले असुर न बनकर औरों का भी धारण करनेवाले ‘धाता’ बनते हैं। सर्वभूतहित में लगे हुए व्यक्ति ही प्रभु के सच्चे उपासक हैं। 

    २. वे प्रभु ( होता ) = सब पदार्थों के देनेवाले हैं [ हु = दान ]। ( यजिष्ठः ) = वे प्रभु अधिक-से-अधिक सङ्गतीकरणवाले हैं, हमारा वास्तविक सम्बन्ध प्रभु से ही है—ये ही पिता हैं, माता हैं, बन्धु हैं। ( अध्वरेषु ईड्यः ) = ये प्रभु ही कुटिलता व हिंसारहित कर्मों में उपासना के योग्य हैं। प्रभु की उपासना अध्वरों द्वारा ही होती है। निश्छल परार्थसाधक कर्मों के होने पर प्रभु-उपासन स्वतः ही चलता है। 

    ३. ये प्रभु वे हैं ( यम् ) = जिसको ( अप्नवानः ) = उत्तम कर्मोंवाले [ अप्न इति कर्मनाम—नि० २।१ ], [ अप्नं करोति इति णिजन्तात् वनिप् ]। ( भृगवः ) = ज्ञानीलोग [ भ्रस्ज पाके ], ज्ञान-अग्नि से अपना परिपाक करनेवाले तपस्वी लोग ( विरुरुचुः ) = [ विदीपयन्ति—द० ] अपने जीवन को ज्ञान से दीप्त करते हैं। प्रभु का प्रकाश उन्हीं में होता है, जिनके हाथों में अध्वर व अप्न हैं और जिनकी वाणी में मन्त्र हैं। हाथों में अध्वरोंवाले ही ‘अप्नवान्’ हैं, वाणी में मन्त्रोंवाले ही ‘भृगु’ हैं। 

    ४. ये प्रभु ( वनेषु ) = उपासकों में [ वन संभक्तौ ] अथवा अपने धन का यज्ञों द्वारा औरों में विभाग करनेवालों में ( चित्रम् ) = [ चित्+र ] ज्ञान देनेवाले हैं, और —

    ५. ( विशेविशे ) = प्रत्येक प्रजा में ( विभ्वम् ) = [ व्यापनशीलम् ] व्याप्त हो रहे हैं। 

    ६. इस प्रकार प्रभु का उपासन करते हुए ये अप्नवान् और भृगु सुन्दर = उत्तम गुणों को धारण करते हैं। इन सुन्दर [ वाम ] गुणों [ देव ] को धारण करने से ये ‘वामदेव’ नामवाले होते हैं।

    भावार्थ -

    भावार्थ — वामदेव प्रभु का धारण करने के लिए ‘धाता बनता है, होता बनता है, अधिक-से-अधिक प्राणियों से मेलवाला होता है, उत्तम कर्मोंवाला व ज्ञानाङ्गिन से अपना परिपाक करनेवाला होता है, यह अपने धनों का बाँटनेवाला बनता है और प्रभु का भजन करता है।

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