यजुर्वेद - अध्याय 3/ मन्त्र 61
ए॒तत्ते॑ रुद्राव॒सं तेन॑ प॒रो मूज॑व॒तोऽती॑हि। अव॑ततधन्वा॒ पिना॑कावसः॒ कृत्ति॑वासा॒ऽअहि॑ꣳसन्नः शि॒वोऽती॑हि॥६१॥
स्वर सहित पद पाठए॒तत्। ते॒। रु॒द्र॒। अ॒व॒सम्। तेन॑। प॒रः। मूज॑वत॒ इति॒ मूज॑ऽवतः। अति॑। इ॒हि॒। अव॑ततध॒न्वेत्यव॑ततऽधन्वा। पिना॑कावस॒ इति॒ पिना॑कऽअवसः। कृत्ति॑वासा॒ इति॒ कृत्ति॑ऽवासाः। अहि॑ꣳसन्। नः॒। शि॒वः। अति॑। इ॒हि॒ ॥६१॥
स्वर रहित मन्त्र
एतत्ते रुद्रावसन्तेन परो मूजवतो तीहि । अवततधन्वा पिनाकावसः कत्तिवासा अहिँसन्नः शिवो तीहि ॥
स्वर रहित पद पाठ
एतत्। ते। रुद्र। अवसम्। तेन। परः। मूजवत इति मूजऽवतः। अति। इहि। अवततधन्वेत्यवततऽधन्वा। पिनाकावस इति पिनाकऽअवसः। कृत्तिवासा इति कृत्तिऽवासाः। अहिꣳसन्। नः। शिवः। अति। इहि॥६१॥
विषय - अन्न व वस्त्र
पदार्थ -
१. हे ( रुद्र ) = हृदयस्थरूप से ज्ञान देनेवाले प्रभो! [ रुत्+र ] ( एतत् ) = यह आपसे दिया गया ज्ञान ही ( ते ) = आपका ( अवसम् ) = रक्षण है, रक्षा का साधन है। ज्ञान देकर ही तो आप उपासकों का रक्षण करते हैं।
२. ( तेन ) = उस ज्ञान से ( परः ) = [ स एष पूर्वेषामपि गुरुः कालेनानवच्छेदात् ] सर्वोत्कृष्ट आप—ज्ञानियों को भी ज्ञान देनेवाले आप ( मूजवतः ) = [ मुज मार्जने ] पवित्रतावालों को ( अति+इहि ) = अतिशयेन प्राप्त होओ। प्रभु पूर्व-गुरुओं के भी गुरु हैं, क्योंकि वे सबसे ‘पर’ हैं, सबसे पहले विद्यमान हैं। इस ज्ञान के द्वारा ही वे प्रभु हमारा रक्षण करते हैं। प्रभु का यह ज्ञान पवित्र हृदयवालों को प्राप्त होता है।
३. ( अवततधन्वा ) = वे प्रभु अवततधन्वा हैं। ( अव ) = यहाँ—पृथिवी पर ( तत ) = विस्तृत किया है ( धन्वा ) = ओंकाररूप धनुष जिसने, ऐसे हैं। सब वेदों का सार यह ‘ओम्’ है, यह ऐसा धनुष है जो हमारे सब शत्रुओं को समाप्त कर देता है [ प्रणवो धनुः, प्रणव = ओंकार ]।
४. ( पिनाकावसः ) = [ प्रतिपिनष्टि अनेन इति पिनाकम् = धनुः, ( अवस ) = रक्षण ] प्रणवरूप धनुष से रक्षण करनेवाले वे प्रभु हैं। हम ‘ओम्’ का उच्चारण करते हैं और वासना विनष्ट हो जाती है। ओम् का स्मरण हमें पवित्र बनाता है।
५. ( कृत्तिवासाः ) = [ कृत्तिः कृन्तन्तेर्वा यशः वा अन्नं वा ] आप ही तो वस्तुतः अन्न व वस्त्र देनेवाले हैं। आप अन्न और वस्त्र देकर ( नः ) = हमें ( अहिंसन् ) = न हिंसित करते हुए ( शिवः ) = कल्याणकर आप ( अति इहि ) = अतिशयेन प्राप्त होओ।
भावार्थ -
भावार्थ — ‘ज्ञान’ रक्षण का सर्वप्रथम साधन है। वे परम प्रभु पवित्र हृदयवालों को प्राप्त होते हैं। ‘प्रणव’ रूप धनुष से हम वासनाओं के आक्रमण को विफल कर देते हैं। वे प्रभु ‘अन्न और वस्त्र’ प्राप्त कराकर हमारी हिंसा नहीं होने देते। वे कल्याणकर प्रभु हमें प्राप्त हों।
टिप्पणी -
टिप्पणी — ‘अहिंसन्नः’ का सन्धिच्छेद ‘अहिं+सन्नः’ करके ‘साँप पर आसीन’ होता है। इसी कारण विष्णु भगवान् सचमुच साँप पर शयन करनेवाले बन गये।
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