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  • यजुर्वेद - अध्याय 31/ मन्त्र 11
    ऋषिः - नारायण ऋषिः देवता - पुरुषो देवता छन्दः - निचृदनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः
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    ब्रा॒ह्म॒णोऽस्य॒ मुख॑मासीद् बा॒हू रा॑ज॒न्यः कृ॒तः।ऊ॒रू तद॑स्य॒ यद्वैश्यः॑ प॒द्भ्या शू॒द्रोऽअ॑जायत॥११॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ब्रा॒ह्म॒णः᳖। अ॒स्य॒। मुख॑म्। आ॒सी॒त्। बा॒हूऽइति॑ बा॒हू। रा॒ज॒न्यः᳖। कृ॒तः ॥ ऊ॒रूऽइत्यू॒रू। तत्। अ॒स्य॒। यत्। वैश्यः॑। प॒द्भ्यामिति॑ प॒त्ऽभ्याम्। शू॒द्रः। अ॒जा॒य॒त॒ ॥११ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ब्राह्मणोस्य मुखमासीद्बाहू राजन्यः कृतः । ऊरू तदस्य यद्वैश्यः पद्भ्याँ शूद्रोऽअजायत ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    ब्राह्मणः। अस्य। मुखम्। आसीत्। बाहूऽइति बाहू। राजन्यः। कृतः॥ ऊरूऽइत्यूरू। तत्। अस्य। यत्। वैश्यः। पद्भ्यामिति पत्ऽभ्याम्। शूद्रः।अजायत॥११॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 31; मन्त्र » 11
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    पदार्थ -
    १. (अस्य) = इस प्रभुभक्त का (मुखम्) = मुख (ब्राह्मण:) = ब्राह्मण आसीत् हो जाता है। यह प्रभुभक्त अपने मुख से सदा ब्रह्म का प्रतिपादन करनेवाला [ब्राह्मण] बनता है, इसका मुख ज्ञान का प्रसार करता है । २. (बाहू) = इस प्रभुभक्त की (भुजा राजन्यः) = क्षत्रिय (कृतः) = कर दी गई हैं। ('स विशो अरज्यत ततो राजन्यो अजायत') = प्रकृति का रञ्जन करने से ये राजन्य बनी हैं। इसकी भुजाएँ प्रजा के रक्षण में व्याप्त होने से प्रजा को आनन्दित करनेवाली हैं, अतः राजन्य हैं। ३. (यत्) = जो (अस्य) = इसकी (ऊरू) = जाँघें हैं (तत्) = वे ही (वैश्यः) = वैश्य हैं। अथर्व में यह पाठ ‘मध्यं तदस्य यद्वैश्यः' है। 'ऊरू' मध्यभाग का ही प्रतीक है, पेट भी उसमें समाविष्ट है। जिस प्रकार पेट रुधिरादि सब धातुओं का निर्माण करता है इसी प्रकार इस प्रभुभक्त की ऊरू भी निर्माण कार्य में व्याप्त रहती हैं, कभी थकती नहीं । ('कृषिगोरक्षवाणिज्ये') = कृषि, गोरक्षा व वाणिज्य ही वैश्य के कर्म हैं। यह प्रभुभक्त भी इन्हीं जैसे निर्माण के कार्यों में लगा रहता है। ४. (पद्भ्याम्) = पाँवों से यह प्रभुभक्त (शूद्रः) = शूद्र अजायत हो जाता है। 'शूद्र' अर्थात् शु- द्रवति = तीव्र गति करता है। यह प्रभुभक्त बड़ा क्रियाशील होता है। इसमें प्रमाद, आलस्य व निद्रा स्थान नहीं कर लेती, यह अप्रमत्त होकर सब नियत कर्मों को शीघ्रता से करता है।

    भावार्थ - भावार्थ- प्रभुभक्त ज्ञान का प्रचारक, निर्बलों का रक्षक, सभी का पालक तथा शीघ्रता से कार्यों को करनेवाला होता है, दूसरे शब्दों में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य व शूद्र बनता है।

    - नोट - १. प्रस्तुत मन्त्र में प्रसंगवश वर्णव्यवस्था का भी संकेत हो गया है। समाज का शरीर ब्राह्मणरूप मुखवाला है, क्षत्रिय इसकी भुजाएँ हैं, इसका मध्यभाग ही वैश्य है और इसके पाँव शूद्र हैं। ब्राह्मण वही है जो मुख की भाँति ज्ञान का प्रसार करनेवाला है, क्षत्रिय भुजाओं की तरह रक्षक है। वैश्य ने पेट की तरह सब अन्नादि का उत्पादन करना है और शूद्र ने अतन्द्र होकर सेवा कार्य में व्याप्त रहना है। एवं वर्णव्यवस्था गुण-कर्मों पर ही आश्रित है। [क] मुख को सर्दी-गर्मी नहीं सताती, अन्य शरीरांगों की अपेक्षा यह अधिक तपस्वी है, ब्राह्मण को भी इसी प्रकार तपस्वी बनना है। मुख स्वादिष्ठ वस्तु को अपने पास न रखकर पेट में भेज देता है, इसी प्रकार ब्राह्मण अपरिग्रही बनाये हैं। भेंट में प्राप्त बहुमूल्य वस्तु को यह प्रजाहित के लिए दान कर देता है। [ख] भुजाओं का काम पालन है, ये शक्तिशाली होती हैं, इसी प्रकार क्षत्रिय ने शक्तिशाली बनकर प्रजा की रक्षा करनी है। वैश्य पेट की भाँति सभी को देकर स्वयं पतला बना रहता है। पेट का सौन्दर्य पतलेपन में ही है। वैश्य का सौन्दर्य भी, देकर निर्धन बनने में ही है। पाँव बिना असूया के चलते है, इसी प्रकार बिना किसी खीझ के शूद्र ने सेवा करनी है।

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