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  • यजुर्वेद - अध्याय 4/ मन्त्र 27
    ऋषिः - वत्स ऋषिः देवता - विद्वान् देवता छन्दः - भूरिक् ब्राह्मी पङ्क्ति, स्वरः - पञ्चमः
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    मि॒त्रो न॒ऽएहि॒ सुमि॑त्रध॒ऽइन्द्र॑स्यो॒रुमावि॑श॒ दक्षि॑णमु॒शन्नु॒शन्त॑ꣳ स्यो॒नः स्यो॒नम्। स्वान॒ भ्राजाङ्घा॑रे॒ बम्भा॑रे॒ हस्त॒ सुह॑स्त॒ कृशा॑नवे॒ते वः॑ सोम॒क्रय॑णा॒स्तान् र॑क्षध्वं॒ मा वो॑ दभन्॥२७॥

    स्वर सहित पद पाठ

    मि॒त्रः। नः॒। आ। इ॒हि॒। सुमि॑त्रध॒ इति॒ सुऽमि॑त्रधः। इन्द्र॑स्य। उ॒रुम्। आ। वि॒श॒। दक्षि॑णम्। उ॒शन्। उ॒शन्त॑म्। स्यो॒नः। स्यो॒नम्। स्वान॑। भ्राज॑। अङ्घा॑रे। बम्भा॑रे। हस्त॑। सुह॒स्तेति॒ सुऽहस्त॑। कृशा॑नो॒ऽइति॒ कृशानो। ए॒ते। वः॒। सो॒म॒क्रय॑णा॒ इति॑ सोम॒ऽक्रय॑णाः। तान्। र॒क्ष॒ध्व॒म्। मा। वः॒। द॒भ॒न् ॥२७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    मित्रो न एहि सुमित्रधः इन्द्रस्योरुमा विश दक्षिणमुशन्नुशन्तँ स्योनः स्योनम् । स्वान भ्राजाङ्घारे बम्भारे हस्त सुहस्त कृशानोवेते वः सोमक्रयणास्तान्रक्षध्वम्मा वो दभन् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    मित्रः। नः। आ। इहि। सुमित्रध इति सुऽमित्रधः। इन्द्रस्य। उरुम्। आ। विश। दक्षिणम्। उशन्। उशन्तम्। स्योनः। स्योनम्। स्वान। भ्राज। अङ्घारे। बम्भारे। हस्त। सुहस्तेति सुऽहस्त। कृशानोऽइति कृशानो। एते। वः। सोमक्रयणा इति सोमऽक्रयणाः। तान्। रक्षध्वम्। मा। वः। दभन्॥२७॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 4; मन्त्र » 27
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    पदार्थ -

    १. उपासक की ही प्रार्थना का प्रसङ्ग चल रहा है। उपासक कहता है कि हे ( सुमित्रध ) [ सु-मित्र-ध ] = उत्तम स्नेह करनेवालों के धारक प्रभो! ( मित्रः ) = सब पापों से बचानेवाले आप [ प्रमीतेः त्रायते ] ( नः ) = हमें ( एहि ) = प्राप्त होओ। वस्तुतः संसार में पापों के मूल में स्नेह का न होना और द्वेष का होना ही है। मनुष्य द्वेषवृत्ति से ऊपर उठता है तो पाप से भी ऊपर उठ जाता है, परन्तु यह सब प्रभुकृपा से ही होता है। 

    २. हे प्रभो! आप ( उशन् ) = सबका भला चाहनेवाले हैं, ( स्योनः ) = सुखस्वरूप हैं। आप ( इन्द्रस्य ) = इन्द्रियों के अधिष्ठता जितेन्द्रिय पुरुष के ( उरुम् ) = विशाल हृदयान्तरिक्ष में, जोकि ( दक्षिणम् ) = [ दक्षतेः उत्साहकर्मणः ] उत्साह से परिपूर्ण है, ( उशन्तम् ) = सभी का भला चाहनेवाला है, ( स्योनम् ) = आनन्दमय है, जो सब प्रकार के विषादों से ऊपर उठ चुका है, उस हृदय में ( आविश ) = प्रवेश कीजिए। यदि हम प्रभु को प्राप्त करना चाहते हैं तो हम हृदय में [ क ] उत्साह को धारण करें [ ख ] सब का भला चाहें [ ग ] और मनःप्रसादरूप तप को सिद्ध करें।

    उपासक की प्रार्थना का उत्तर देते हुए प्रभु कहते हैं कि ३. [ क ] ( स्वान ) [ सु+आन ] =  उत्तम प्राणशक्ति को धारण करनेवाले [ अन प्राणने ], [ ख ] ( भ्राज ) = ज्ञान से दीप्त [ भ्राजृ दीप्तौ ], [ ग ] ( अङ्घारे ) = पाप के शत्रु, अर्थात् नाशक [ घ ] ( बम्भारे ) [ बन्धानां सुविचारनिरोधकानां शत्रुः—द० ] ज्ञान के प्रतिबन्धक आलस्यादि दोषों को दूर करनेवाले [ ङ ] ( हस्त ) = [ हस् ] सदा हास्ययुक्त मुखवाले [ Smiling face ] [ च ] ( सुहस्त ) = सधे हुए हाथोंवाले, अर्थात् कार्यों को कुशलता से करनेवाले—प्रत्येक क्रिया को कलापूर्ण ढङ्ग से करनेवाले [ छ ] ( कृशानो ) = [ कृशान् आनयति ] दुर्बलों के अन्दर प्राणों का सञ्चार करनेवाले अथवा [ दुष्टान् कृशति—द० ] दुष्टों को कृश करनेवाले ( वः ) = तुम्हारी ( एते ) = ये सात बातें ( सोमक्रयणाः ) = सर्वज्ञ प्रभु को खरीदनेवाली हैं। इन सात बातों को अपने जीवन में लाकर ही तुम प्रभु को अपना सकते हो। इन्हीं सात बातों को सात रत्न समझना। ये सात बातें ही तुम्हें सप्तर्षि बनानेवाली होंगी। बस, ( तान् रक्षध्वम् ) = इनकी रक्षा करना, जिससे संसार के प्रलोभन  ( वः ) = तुम्हें ( मा ) = मत ( दभन् ) = हिंसित करनेवाले हों। तुम इन बातों को अपनाओगे तो संसार के प्रलोभनों के विजेता बनोगे। इस विजय को वही करता है जो ‘स्वान-भ्राज-अङ्घारि-बम्भारि-हस्त-सुहस्त व कृशानु’ बनता है।

    भावार्थ -

    भावार्थ — हम ‘उत्तम प्राणशक्तिवाले, ज्ञानदीप्त, पाप-शत्रु, ज्ञानप्रतिबन्धनिवर्तक, प्रसन्न, सिद्धहस्त व निर्बलों को उत्साहित करनेवाले और दुष्टों को कृश करनेवाले बनें।

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