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  • यजुर्वेद - अध्याय 4/ मन्त्र 31
    ऋषिः - वत्स ऋषिः देवता - वरुणो देवता छन्दः - विराट् आर्षी त्रिष्टुप्, स्वरः - धैवतः
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    वने॑षु॒ व्यन्तरि॑क्षं ततान॒ वाज॒मर्व॑त्सु॒ पय॑ऽउ॒स्रिया॑सु। हृ॒त्सु क्रतुं॒ वरु॑णो वि॒क्ष्वग्निं दि॒वि सूर्य॑मदधा॒त् सोम॒मद्रौ॑॥३१॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वने॑षु। वि। अ॒न्तरि॑क्षम्। त॒ता॒न॒। वाज॑म्। अर्व॒त्स्वित्यर्व॑त्ऽसु। पयः॑। उ॒स्रिया॑सु। हृ॒त्स्विति॑ हृ॒त्ऽसु। क्रतु॑म्। वरु॑णः। वि॒क्षु। अ॒ग्निम्। दि॒वि। सूर्य्य॑म्। अ॒द॒धा॒त्। सोम॑म्। अद्रौ॑ ॥३१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वनेषु व्यन्तरिक्षन्ततान वाजमर्वत्सु पय उस्रियासु हृत्सु क्रतुँ वरुणो विक्ष्वग्निन्दिवि सूर्यमदधात्सोममद्रौ ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    वनेषु। वि। अन्तरिक्षम्। ततान। वाजम्। अर्वत्स्वित्यर्वत्ऽसु। पयः। उस्रियासु। हृत्स्विति हृत्ऽसु। क्रतुम्। वरुणः। विक्षु। अग्निम्। दिवि। सूर्य्यम्। अदधात्। सोमम्। अद्रौ॥३१॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 4; मन्त्र » 31
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    पदार्थ -

    १. वरुण प्रभु ने ( वनेषु ) = वनों में ( अन्तरिक्षम् ) = अन्तरिक्ष का ( विततान ) = विशेषरूप से विस्तार किया है। नगरों व ग्रामों में क्षितिज छोटा हो जाता है, क्योंकि वहाँ मकान आदि दृष्टि की रुकावट के कारण बन जाते हैं। 

    २. उसी वरुण ने ( अर्वत्सु ) = घोड़ों में ( वाजम् ) = शक्ति को विस्तृत किया है। घोड़ा शक्ति का प्रतीक है। ‘Horse power’ यह शब्द ही घोडे़ के साथ शक्ति के सम्बन्ध का प्रतिपादन करता है। वह घोड़ा घोड़ा क्या जो मरियल-सा हो। 

    ३. वरुण ने ( उस्रियासु ) = गौवों में ( पयः ) = दूध को ( वि अदधात् ) = विशेषरूप से रक्खा है। दूध न देनेवाली गौ गौ ही नहीं। 

    ४. इस वरुण ने ( हत्सु ) = हृदयों में ( क्रतुम् ) = कर्मसंकल्प की स्थापना की है। कर्मसंकल्पशून्य हृदय ऐसा ही है जैसाकि शक्तिशून्य घोड़ा अथवा दूध से रहित गौ। 

    ५. उस ( वरुणः ) = वरुण ने ( विक्षु ) = प्रजाओं में ( अग्निम् ) = मलों को दूर करने की साधनभूत अग्नि की स्थापना की है। प्रजाओं को चाहिए कि इस यज्ञाङ्गिन को वे अपने घरों में कभी बुझने न दें। 

    ६. ( दिवि सूर्यम् अदधात् ) = उस वरुण ने द्युलोक में सूर्य को स्थापित किया है और ( अद्रौ ) = पर्वत पर ( सोमम् ) = सोम को। ओषधियों का राजा सोम है। सूर्य से इन ओषधियों में प्राणशक्ति की स्थापना होती है।

    भावार्थ -

    भावार्थ — हमें अपने हृदयों में कर्मसंकल्प धारण करना चाहिए। कर्मसंकल्प-शून्य हृदय ऐसा ही है जैसाकि संकुचित अन्तरिक्षवाला वन, शक्तिशून्य घोड़ा अथवा दूधरहित गाय, यज्ञाङ्गिन से रहित गृहस्थ, सूर्यशून्य द्युलोक और ओषधियों से शून्य पर्वत।

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