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  • यजुर्वेद - अध्याय 40/ मन्त्र 12
    ऋषिः - दीर्घतमा ऋषिः देवता - आत्मा देवता छन्दः - निचृदनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः
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    अ॒न्धन्तमः॒ प्र वि॑शन्ति॒ येऽवि॑द्यामु॒पास॑ते।ततो॒ भूय॑ऽइव॒ ते तमो॒ यऽउ॑ वि॒द्याया॑ र॒ताः॥१२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒न्धम्। तमः॑। प्र। वि॒श॒न्ति॒। ये। अवि॑द्याम्। उ॒पास॑त॒ इत्यु॑प॒ऽआस॑ते ॥ ततः॑। भूय॑ऽइ॒वेति॒ भूयः॑ऽइव। ते। तमः॑। ये। ऊँ॒ऽइत्यूँ॑। वि॒द्याया॑म्। र॒ताः ॥१२ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अन्धन्तमः प्रविशन्ति येविद्यामुपासते । ततो भूयऽइव ते तमो यऽउ विद्यायाँ रताः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अन्धम्। तमः। प्र। विशन्ति। ये। अविद्याम्। उपासत इत्युपऽआसते॥ ततः। भूयऽइवेति भूयःऽइव। ते। तमः। ये। ऊँऽइत्यूँ। विद्यायाम्। रताः॥१२॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 40; मन्त्र » 12
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    पदार्थ -
    प्रस्तुत मन्त्र में अविद्या और विद्या के अर्थ को समझने के लिए उपनिषद् का यह वाक्य स्मरणीय है कि ('द्वे विद्ये वेदितव्ये, परा चैवापरा च') परा और अपरा दोनों ही विद्याएँ जाननी चाहिएँ । परा वह है जिससे अक्षरब्रह्म का ज्ञान होता है, अर्थात् ब्रह्मविद्या व आत्मविद्या ही 'पराविद्या' है। आत्मतत्त्व से प्रकृतितत्त्व अपर है, अतः उसका ज्ञान ही 'अपराविद्या' नाम से कहा गया। दोनों का ही ज्ञान आवश्यक है। शरीर के हित के लिए 'प्रकृति का ज्ञान' आवश्यक है, तो अपने स्वरूप को जानने के लिए आत्म-ज्ञान आवश्यक है। 'अपरा विद्या' और 'परा विद्या' इन दोनों शब्दों में से 'परा' इस सामान्य शब्द को हटा देने पर ये शब्द 'अविद्या' और 'विद्या' हो गये हैं। यहाँ मन्त्र में इन्हीं का प्रयोग है। (ये) = जो (अविद्याम्) = प्रकृतिविद्या की (उपासते) = उपासना करते हैं वे (अन्धन्तमः) = घने अँधेरे में (प्रविशन्ति) = प्रवेश करते हैं। [क] वर्त्तमान संसार में वैज्ञानिक 'आणविक अस्त्रों' से व्याकुल हो उठे हैं। उनको सूझता नहीं कि इनका क्या करें और क्या न करें? [ख] बड़े-बड़े दैत्याकार यन्त्र बनाकर इतनी तीव्रता से वस्तुओं का निर्माण कर रहे हैं कि उनकी बिक्री के लिए मण्डी का मिलना दुष्कर हो रहा है। [ग] पैन्सिलीन आदि आविष्कार से निर्भीक होकर ये युवक अनाचार से घबरा नहीं रहे। [घ] मनुष्यों का स्थान यन्त्रों ने ले लिया है और इस प्रकार मनुष्य को उसने बेकार [ unemployed] कर दिया है। इस प्रकार इस प्रकृतिविद्या ने कितनी ही जटिलताएँ उपस्थित कर दी हैं, परन्तु क्या ब्रह्मविद्या का कोई कृष्णपार्श्व नहीं है? नहीं, इसका कृष्णपार्श्व तो और भी अधिक कृष्ण है। भारतीयों का झुकाव आत्मा की ओर अधिक हो गया। ये प्रतिक्षण आत्मा की उपासना में ही बिताने लगे और जब ये परमात्मा की ही रट लगाने में तन्मय थे, इनका ध्यान प्रभु की ओर था तो विदेशियों ने अवसर पाकर चुपके से इनके पाँव तले से भूमि को खिसका लिया। भारतीयों का ध्यान गया तो इन्हें परतन्त्रतापाश में जकड़नेवालों ने कहा 'आत्मा ही तो सत्य है' उसे तुम रक्खो, इस मिथ्या संसार को हमें दे डालो, हमने तो तुम्हारी जूठन ही ली है, हम तुम्हारे सत्य में हस्तक्षेप नहीं कर रहे है। बस, इस आत्मरति ने भारतीयों को हज़ार वर्ष तक गुलाम रक्खा और भूखों मारा एवं मन्त्र के शब्दों के अनुसार (ततः) = उस प्रकृतिविद्या के उपासकों से भी (भूय इव) = अधिक ही (तमः) = अन्धकार को वे प्राप्त करते हैं (ये) = जो निश्चय से (विद्यायाम् रता:) = ब्रह्मविद्या में फँसे हुए हैं।

    भावार्थ - भावार्थ- केवल प्रकृतिविद्या के उपासक अँधेरे में प्रवेश करते हैं तो केवल ब्रह्मविद्या के उपासक उससे भी घने अँधेरे में पहुँचते हैं।

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