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  • यजुर्वेद - अध्याय 7/ मन्त्र 5
    ऋषिः - गोतम ऋषिः देवता - ईश्वरो देवता छन्दः - आर्षी पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः
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    अ॒न्तस्ते॒ द्यावा॑पृथि॒वी द॑धाम्य॒न्तर्द॑धाम्यु॒र्वन्तरि॑क्षम्। स॒जूर्दे॒वेभि॒रव॑रैः॒ ॒परै॑श्चान्तर्या॒मे म॑घवन् मादयस्व॥५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒न्तरित्य॒न्तः। ते॒। द्यावा॑पृथि॒वीऽइति॒ द्यावा॑पृथि॒वी। द॒धा॒मि॒। अ॒न्तः। द॒धा॒मि॒। उ॒रु। अ॒न्तरि॑क्षम्। स॒जूरिति॑ स॒ऽजूः। दे॒वेभिः॑। अव॑रैः। परैः॑। च॒। अ॒न्त॒र्य्याम इत्य॑न्तःऽया॒मे। म॒घ॒वन्निति॑ मघऽवन्। मा॒द॒य॒स्व॒ ॥५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अन्तस्ते द्यावापृथिवी दधाम्यन्तर्दधाम्युर्वन्तरिक्षम् । सजूर्देवेभिरवरैः परैश्चान्तर्यामे मघवन्मादयस्व ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अन्तरित्यन्तः। ते। द्यावापृथिवीऽइति द्यावापृथिवी। दधामि। अन्तः। दधामि। उरु। अन्तरिक्षम्। सजूरिति सऽजूः। देवेभिः। अवरैः। परैः। च। अन्तर्य्याम इत्यन्तःऽयामे। मघवन्निति मघऽवन्। मादयस्व॥५॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 7; मन्त्र » 5
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    पदार्थ -

    गत मन्त्र के ‘उपयामगृहीत’ = योग के नियमों का पालन करनेवाले से प्रभु कहते हैं कि मैं १. ( ते अन्तः ) = तेरे अन्दर ( द्यावापृथिवी ) = द्युलोक व पृथिवीलोक को ( दधामि ) = धारण करता हूँ। तेरे मस्तिष्करूप द्युलोक को ज्योतिर्मय बनाता हूँ और तेरे पृथिवीरूप शरीर को बड़ा दृढ़ बनाता हूँ। 

    २. ( अन्तः ) = तेरे अन्दर ( उरु अन्तरिक्षम् ) = विशाल हृदयान्तरिक्ष को धारण करता हूँ। तेरे हृदय को विशाल बनाता हूँ। 

    ३. इस योग-साधना से शरीर में सब देवांश बड़े ठीक ढङ्ग से अपना-अपना कार्य करते हैं। शरीर के मस्तिष्करूप द्युलोक में निवास करनेवाले देव ‘पर’ हैं तो पाँव आदि में रहनेवाले देव ‘अवर’ हैं। ( अवरै परैः च ) = इन अवर व पर ( देवेभिः सजूः ) = देवों से मित्रतावाला तू ( अन्तर्यामे ) = योग के द्वारा मन को अन्दर ही नियमन करने पर ( मघवन् ) = ज्ञानरूप उत्कृष्ट ऐश्वर्यवाला होकर ( मादयस्व ) = आनन्द का अनुभव कर। योग को यहाँ ‘अन्तर्याम’ शब्द से स्मरण किया गया है, क्योंकि इसके द्वारा मन को बाह्य विषयों से रोककर अन्दर रोका जाता है और इसके साथ ही प्राणनिरोध के द्वारा सोम का भी शरीर के अन्दर नियमन होता है। एवं, यह योग ‘अन्तर्याम’ है। इस अन्तर्याम के होने पर मनुष्य का ज्ञानैश्वर्य बढ़ता है और यह ‘मघवन्’ बन जाता है। इस ज्ञान [ ऋतम्भरा प्रज्ञा ] के प्राप्त होने पर मनुष्य वास्तविक आनन्द का अनुभव करता है।

    भावार्थ -

    भावार्थ — योग द्वारा मनोनिरोध होने पर ‘मस्तिष्क, मन व शरीर’ सुन्दर बनते हैं। अवर व पर सब देवों से मित्रता होती है। ज्ञानैश्वर्य प्राप्त कर हम आनन्द प्राप्त करते हैं।

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