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अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 122/ मन्त्र 2
आ घ॒ त्वावा॒न्त्मना॒प्त स्तो॒तृभ्यो॑ धृष्णविया॒नः। ऋ॒णोरक्षं॒ न च॑क्र्यो: ॥
स्वर सहित पद पाठआ । घ॒ । त्वाऽवा॑न् । त्मना॑ । आ॒प्त: । स्तो॒तृऽभ्य॑: । धृ॒ष्णो॒ इति॑ । इ॒या॒न: ॥ ऋ॒णो: । अक्ष॑म् । न । च॒क्र्यो॑: ॥१२२.२॥
स्वर रहित मन्त्र
आ घ त्वावान्त्मनाप्त स्तोतृभ्यो धृष्णवियानः। ऋणोरक्षं न चक्र्यो: ॥
स्वर रहित पद पाठआ । घ । त्वाऽवान् । त्मना । आप्त: । स्तोतृऽभ्य: । धृष्णो इति । इयान: ॥ ऋणो: । अक्षम् । न । चक्र्यो: ॥१२२.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 122; मन्त्र » 2
विषय - त्रिविध उन्नति
पदार्थ -
१.हे (स्तोतृभ्यः धृषणो) = स्तोताओं के लिए उनके शत्रुओं का घर्षण करनेवाले प्रभो! जो व्यक्ति (वावान्) = आप-जैसा बनने का प्रयत्न करता है और (त्मना आस:) = आत्मतत्त्व की प्राप्ति से सब-कुछ को प्राप्त मानता है। वह (इयान:) = सदा गतिशील होता हुआ (घ) = निश्चय से (चक्र्योः अक्षन) = चक्रों में अक्ष की भांति, मस्तिष्क व शरीर [धुलोक व पृथिवीलोक] के बीच में हृदय [अन्तरिक्ष] को (आ ऋणो:) = प्राप्त करता है [आ ऋणोति]। जैसे चक्र व अक्ष साथ-साथ चलते हैं उसी प्रकार यह स्तोता मस्तिष्क, शरीर व हृदय सबकी साथ-साथ उन्नति करता है। उन्नति कर वही पाता है जोकि क्रियाशील होता है [इयानः] २. यह ठीक है कि यह व्यक्ति प्रभु का स्तवन करता है और प्रभु ही इसके मार्ग में आनेवाले विघ्नभूत शत्रुओं का विनाश करते हैं। स्तोताओं के शत्रुओं का विनाश प्रभु का ही कार्य है। स्तोता वह है जोकि प्रभु-जैसा बनने का प्रयत्न करता है [त्वाबान्] तथा अपने अन्दर आत्मा से ही तुष्ट होने का प्रयत्न करता है [त्मना आप्त:-आत्मन्येवात्मना तुष्टः]।
भावार्थ - हम प्रभु के स्तोता बनें। प्रभु हमारे बासनारूप शत्रुओं का संहार करेंगे। तभी हम शरीर, मन व मस्तिष्क तीनों की उन्नति कर पाएंगे।
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