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अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 122/ मन्त्र 3
आ यद्दुवः॑ शतक्रत॒वा कामं॑ जरितॄ॒णाम्। ऋ॒णोरक्षं॒ न शची॑भिः ॥
स्वर सहित पद पाठआ । यत् । दुव॑: । श॒त॒क्र॒तो॒ इति॑ शतऽक्रतो । आ । काम॑म् । ज॒रि॒तॄ॒णाम् ॥ ऋ॒णो: । अक्ष॑म् । न । शची॑भि: ॥१२२.३॥
स्वर रहित मन्त्र
आ यद्दुवः शतक्रतवा कामं जरितॄणाम्। ऋणोरक्षं न शचीभिः ॥
स्वर रहित पद पाठआ । यत् । दुव: । शतक्रतो इति शतऽक्रतो । आ । कामम् । जरितॄणाम् ॥ ऋणो: । अक्षम् । न । शचीभि: ॥१२२.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 122; मन्त्र » 3
विषय - 'प्रज्ञा, वाणी व कर्म'
पदार्थ -
१. हे (शतक्रतो) = सैकड़ों प्रज्ञाओं व कौवाले प्रभो! आप (जरितॄणाम्) = स्तोताओं को (यत्) = जो (दुवः) = धन [दुवस् wealth] तथा (कामम्) = चाहनेवाले पदार्थों को (आऋणो:) = सर्वथा प्राप्त कराते हैं, यह सब (शचीभिः) = [कर्म नि० २.१, बाणी १.११: प्रज्ञा ३.९] कर्म, वाणी व प्रज्ञा के हेतु से (अक्षं न) = दो पहियों के बीच में वर्तमान अक्ष के समान हैं। जैसे दो पहियों के बीच में अक्ष होता है, उसी प्रकार यहाँ प्रज्ञा व कर्म के बीच में वाणी है। दोनों पहिये तथा अक्ष साथ-साथ धूमते हैं, उसी प्रकार प्रज्ञा, वाणी व कर्म साथ-साथ चलते हैं। प्रत्येक कर्म पहले विचार के रूप में होता है [प्रज्ञा], फिर उच्चारण के रूप आता है [वा] और अन्तत: आचरण [कर्म] का रूप धारण करता है। २. प्रभु हमें जो भी धन प्राप्त कराते हैं या हमें जो काम्य पदार्थ देते हैं, वे सब इसलिए कि हम 'प्रज्ञा, वाणी व कर्म' को सुन्दर बना सकें। इन सब धनों व काम्य पदार्थों का अतियोग व अयोग न करते हुए हम यथायोग करेंगे तो हम 'प्रज्ञा, वाणी व कर्म' इन सबको सुन्दर बना ही सकेंगे।
भावार्थ - हम प्रभु के स्तोता बनें। प्रभु हमें धनों व इष्ट पदार्थों को प्राप्त कराएँगे। उनके यथायोग से हम 'प्रज्ञा, वाणी व कर्म' को पवित्र बना पाएंगे। 'प्रज्ञा, वाणी व कर्म' को पवित्र बनानेवाला यह व्यक्ति 'कुत्स' कहलाता है-सब वासनाओं का संहार करनेवाला। यही अगले सूक्त का ऋषि है -
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