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  • यजुर्वेद - अध्याय 31/ मन्त्र 19
    ऋषिः - उत्तरनारायण ऋषिः देवता - आदित्यो देवता छन्दः - भुरिक् त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
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    प्र॒जाप॑तिश्च॒रति॒ गर्भे॑ऽअ॒न्तरजा॑यमानो बहु॒धा वि जा॑यते।तस्य॒ योनिं॒ परि॑ पश्यन्ति॒ धीरा॒स्तस्मि॑न् ह तस्थु॒र्भुव॑नानि॒ विश्वा॑॥१९॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्र॒जाप॑ति॒रिति॑ प्र॒जाऽप॑तिः। च॒र॒ति॒। गर्भे॑। अ॒न्तः। अजा॑यमानः। ब॒हु॒धा। वि। जा॒य॒ते॒ ॥ तस्य॑। योनि॑म्। परि॑। प॒श्य॒न्ति॒। धीराः॑। तस्मि॑न्। ह॒। त॒स्थुः॒। भुव॑नानि। विश्वा॑ ॥१९ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्रजापतिश्चरति गर्भेऽअन्तरजायमानो बहुधा वि जायते । तस्य योनिम्परि पश्यन्ति धीरास्तस्मिन्ह तस्थुर्भुवनानि विश्वा ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    प्रजापतिरिति प्रजाऽपतिः। चरति। गर्भे। अन्तः। अजायमानः। बहुधा। वि। जायते॥ तस्य। योनिम्। परि। पश्यन्ति। धीराः। तस्िमन्। ह। तस्थुः। भुवनानि। विश्वा॥१९॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 31; मन्त्र » 19
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    पदार्थ -

    पदार्थ = ( अजायमानः ) = जो उत्पन्न न होनेवाला  ( प्रजापतिः ) = प्रजा पालक जगदीश्वर  ( गर्भे ) = गर्भस्थ जीवात्मा और  ( अन्त: ) = सबके हृदय में  ( चरति ) = विचरता है और  ( बहुधा ) = बहुत प्रकारों से  ( विजायते ) = विशेष प्रकट होता है  ( तस्य योनिम् ) = उस प्रजापति के स्वरूप को  ( धीराः ) = ध्यानशील महापुरुष   ( परिपश्यन्ति ) = सब ओर से देखते हैं  ( तस्मिन् ) = उसमें  ( ह ) = प्रसिद्ध  ( विश्वा भुवनानि ) = सब लोक-लोकान्तर  ( तस्थुः ) = स्थित हैं । 

    भावार्थ -

    भावार्थ = सर्वपालक परमेश्वर, आप उत्पन्न न होता हुआ अपने सामर्थ्य से जगत् को उत्पन्न कर और उसमें प्रविष्ट होंके सर्वत्र विचरता है अर्थात् सर्वत्र विराजमान है। उस जगदीश्वर के स्वरूप को विवेकी महात्मा लोग ही जानते हैं। उस सर्वाधार परमात्मा के आश्रित ही सब लोक स्थित हो रहे हैं। ऐसे सर्वज्ञ सर्वशक्तिमान् सर्वनियन्ता, अन्तर्यामी प्रभु को जानकर ही हम सुखी हो सकते हैं ।

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