यजुर्वेद - अध्याय 2/ मन्त्र 5
ऋषिः - परमेष्ठी प्रजापतिर्ऋषिः
देवता - यज्ञो देवता
छन्दः - निचृत् ब्राह्मी बृहती,
स्वरः - मध्यमः
2
स॒मिद॑सि॒ सूर्य्य॑स्त्वा पु॒रस्ता॑त् पातु॒ कस्या॑श्चिद॒भिश॑स्त्यै। स॒वि॒तुर्बा॒हू स्थ॒ऽऊर्ण॑म्रदसं त्वा स्तृणामि स्वास॒स्थं दे॒वेभ्य॒ऽआ त्वा॒ वस॑वो रु॒द्राऽआ॑दि॒त्याः स॑दन्तु॥५॥
स्वर सहित पद पाठस॒मिदिति॑ स॒म्ऽइत्। अ॒सि॒। सूर्य्यः॑। त्वा॒। पु॒रस्ता॑त्। पा॒तु॒। कस्याः॑। चि॒त्। अ॒भिश॑स्त्या॒ इत्य॒भिऽश॑स्त्यै। स॒वि॒तुः। बा॒हूऽइति॑ बा॒हू। स्थः॒। उर्ण॑म्रदस॒मित्यूर्ण॑ऽम्रदसम्। त्वा॒। स्तृ॒णा॒मि॒। स्वा॒स॒स्थमिति॑ सुऽआ॒स॒स्थम्। दे॒वेभ्यः॑। आ। त्वा॒। वस॑वः। रु॒द्राः। आ॒दि॒त्याः स॒द॒न्तु॒ ॥५॥
स्वर रहित मन्त्र
समिदसि सूर्यस्त्वा पुरस्तात्पातु कस्याश्चिदभिशस्त्यै । सवितुर्बाहू स्थः ऽऊर्णम्रदसन्त्वा स्तृणामि स्वासस्थन्देवेभ्यऽआ त्वा वसवो रुद्राऽआदित्याः सदन्तु ॥
स्वर रहित पद पाठ
समिदिति सम्ऽइत्। असि। सूर्य्यः। त्वा। पुरस्तात्। पातु। कस्याः। चित्। अभिशस्त्या इत्यभिऽशस्त्यै। सवितुः। बाहूऽइति बाहू। स्थः। उर्णम्रदसमित्यूर्णऽम्रदसम्। त्वा। स्तृणामि। स्वासस्थमिति सुऽआसस्थम्। देवेभ्यः। आ। त्वा। वसवः। रुद्राः। आदित्याः सदन्तु॥५॥
विषय - राजा के तेजस्वी होने का उपदेश |
भावार्थ -
हे यज्ञ के स्वरूप प्रजापते राजन् या राष्ट्र ! ( सूर्यः ) सूर्य जिस प्रकार इस महान् ब्रह्माण्डमय यज्ञ को प्राची दिशा से रक्षा करता है उसी प्रकार तू भी (त्वा) तुमको सूर्य के समान तेजस्वी ज्ञानी पुरुष ( पुरस्तात् ) आगे से ( कस्या: चित् ) किसी प्रकार की भी अर्थात् सब प्रकार के (अभिशस्त्यै ) अपवाद से ( पातु ) बचावे। हे राजन् ! ( समित् असि ) अग्नि के संयोग में आकर जिस प्रकार काठ और सूर्य के संयोग में आकर जिस प्रकार वसन्त ऋतु चमक जाती और खिल उठती है उसी प्रकार विज्ञान के योग से तू भी तेजस्वी हो जाता है। इसलिये तू 'समित् ' है। आगे से रक्षा करने वाले सूर्य के समान विद्वान् (सवितु: ) सर्वप्रेरक की तुम राजा और प्रजा ये दोनों (बाहू: स्थः ) दो बाहुओं के समान हो। हे आसन के समान सर्वाश्रय राजन् ! (ऊर्णम्रदसं त्वा )ऊन के समान कोमल तुझको ( स्तृणामि ) फैलाता हूं। ( देवेभ्यः )देव विद्वानों के लिये ( सु- आसस्थम् ) उत्तम रीति से बैठने, आश्रय लेने योग्य हो । ( त्वा ) तुझ पर ( वसवः ) वसु नामक विद्वान्, गृहस्थ ( रुद्राः ) दुष्टों को रुलाने में समर्थ अधिकारीगण, ( आदित्याः ) ४८ वर्ष के आदित्य ब्रह्मचारीगण, (आ सदन्तु ) आकर विराजें ।
ब्रह्माण्ड यज्ञ में बल, वीर्य दो सूर्य के बाहु हैं । यज्ञमें अग्नि आठ वसु और ११ प्राण और १२ मास आकर विराजते, महान् यज्ञ का सम्पादन करते हैं। उसमें वसन्त समित् है । सूर्य उस महान् यज्ञ की लाठ प्राची दिशा से रक्षा करता है। तीन ओर से पूर्वोक्त ३ मन्त्र में कही तीन परिधि, तीन लोक रक्षक हैं । शत० १ । ३ । ७ । ७--१२ ॥
टिप्पणी -
५- अग्निसूर्यविधृतयो देवताः । सर्वा० ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर -
परमेष्ठी प्राजापत्यः, देवाः प्राजापत्या, प्रजापतिर्वा ऋषिः )
यज्ञो देवता । निचृद् ब्राह्मी बृहती । मध्यमः ॥
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