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  • यजुर्वेद - अध्याय 2/ मन्त्र 7
    ऋषिः - परमेष्ठी प्रजापतिर्ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - बृहती, स्वरः - मध्यमः
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    अग्ने॑ वाजजि॒द् वाजं॑ त्वा सरि॒ष्यन्तं॑ वाज॒जित॒ꣳ सम्मा॑र्ज्मि। नमो॑ दे॒वेभ्यः॑ स्व॒धा पि॒तृभ्यः॑ सु॒यमे॑ मे भूयास्तम्॥७॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अग्ने॑। वा॒ज॒जि॒दिति॑ वाजऽजित्। वाज॑म्। त्वा॒। स॒रि॒ष्यन्त॑म्। वा॒ज॒जित॒मिति॑ वाज॒ऽजित॑म्। सम्। मा॒र्ज्मि॒। नमः॑। दे॒वेभ्यः॑। स्व॒धा। पि॒तृभ्य॒ इति॑ पि॒तृऽभ्यः॑। सु॒यमे॒ऽइति॑ सु॒ऽयमे॑। मे॒। भू॒या॒स्त॒म् ॥७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अग्ने वाजजिद्वाजन्त्वा सरिष्यन्तँ वाजजितँ सम्मार्ज्मि । नमो देवेभ्यः स्वधा पितृभ्यः सुयमे मे भूयास्तम् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अग्ने। वाजजिदिति वाजऽजित्। वाजम्। त्वा। सरिष्यन्तम्। वाजजितमिति वाजऽजितम्। सम्। मार्ज्मि। नमः। देवेभ्यः। स्वधा। पितृभ्य इति पितृऽभ्यः। सुयमेऽइति सुऽयमे। मे। भूयास्तम्॥७॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 2; मन्त्र » 7
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    भावार्थ -

    हे (अग्ने) अग्रणी ! राजन् ! तू ( वाजजित्) वाज अर्थात् संग्राम का विजय करने हारा है । (वाजम् ) संग्राम के प्रति (सरिष्यन्तम्) गमन करने की इच्छा करते हुए ( वाजजितम् ) युद्ध के विजय करने हारे ( त्वा) तुझको मैं ( सम् मार्ज्मि ) सम्मार्जन करता हूं, तुझे परिशुद्ध करता या भली प्रकार अभिषिक्त करता हूँ । हे विद्वान् पुरुषों ! (देवेभ्यः) युद्ध क्रीडा करने वाले वीरों के लिये ( नमः ) अन्न है । ( पितृभ्यः स्वधा ) पालक, राष्ट्र के अधिकारियों के लिये यह (स्वधा ) उनके शरीर रक्षा की वेतन आदि सामग्री उपस्थित है । राजप्रकृति और शासक अधिकारी प्रकृति दोनों (मे ) मुझ राष्ट्र पुरोहित के अधीन (सुयमे ) उत्तम रूप से राष्ट्र को नियन्त्रण करने में समर्थ, एवं सुखपूर्वक मेरे अधीन, मेरे द्वारा भरण पोषण करने योग्य एवं सुव्यवस्थित, सुसंयत ( भूयास्तम् ) रहें || शत० १ । ४ । ६ । १५ ॥ तथा शत० १। ५। १। १॥ 
     

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर -

    परमेष्ठी प्राजापत्यः, देवाः प्राजापत्या, प्रजापतिर्वा ऋषिः )
    यज्ञो देवता । भुरिक् पंक्ति । पञ्चमः ॥

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