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  • यजुर्वेद - अध्याय 32/ मन्त्र 10
    ऋषिः - स्वयम्भु ब्रह्म ऋषिः देवता - परमात्मा देवता छन्दः - निचृत त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
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    स नो॒ बन्धु॑र्जनि॒ता स वि॑धा॒ता धामा॑नि वेद॒ भुव॑नानि॒ विश्वा॑।यत्र॑ दे॒वाऽ अ॒मृत॑मानशा॒नास्तृ॒तीये॒ धाम॑न्न॒ध्यैर॑यन्त॥१०॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सः। नः॒। बन्धुः॑। ज॒नि॒ता। सः। वि॒धा॒तेति॑ विऽधा॒ता। धामा॑नि। वे॒द॒। भुव॑नानि। विश्वा॑ ॥ यत्र॑। दे॒वाः। अ॒मृत॑म्। आ॒न॒शा॒नाः। तृ॒तीये॑। धाम॑न्। अ॒ध्यैर॑य॒न्तेत्य॑धि॒ऽऐर॑यन्त ॥१० ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स नो बन्धुर्जनिता स विधाता धामानि वेद भुवनानि विश्वा । यत्र देवाऽअमृतमानशानास्तृतीये धामन्नध्ऐरयन्त ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    सः। नः। बन्धुः। जनिता। सः। विधातेति विऽधाता। धामानि। वेद। भुवनानि। विश्वा॥ यत्र। देवाः। अमृतम्। आनशानाः। तृतीये। धामन्। अध्यैरयन्तेत्यधिऽऐरयन्त॥१०॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 32; मन्त्र » 10
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    भावार्थ -
    (सः) वह (नः) हमारा (बन्धुः) बन्धु, भाई के समान हृदयों में बांधने वाला है । ( जनिता) वह उत्पन्न करने वाला, पिता है । (सः विधाता) वह विविध उपायों से धारण पोषण करने हारा है । वह (विश्वा) समस्त (धामा ) धारण सामर्थ्यो, स्थानों और (भुवनानि) लोकों को भी (वेद) जानता है । (यत्र) जिस परमेश्वर में (देवा:) विद्वान्गण, एवं सूर्यादि तेजस्वी पदार्थ ( अमृतम् ) अमृत, मोक्ष-सुख और नाश न होने वाले सत तत्व को (आनशानाः) प्राप्त करते हुए उस (तृतीये) परम सबसे परे विद्यमान, जीव और प्रकृति से भी विलक्षण ( धामन् ) परम तेज में (अधि ऐरयन्त) स्वच्छन्द विचरते हैं । 'तृतीये धामनि' - तृतीय रजस्, तृतीय नाक, तृतीय पृष्ठ, तृतीय लोक ये सब रचना एकार्थक हैं । 'तृतीयं' तीर्णतमम् इति निरु० । सर्वोच्च लोक ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - परमात्मा । निचृत् त्रिष्टुप् । धैवतः ॥

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