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  • यजुर्वेद - अध्याय 35/ मन्त्र 15
    ऋषिः - आदित्या देवा ऋषयः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
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    इ॒मं जी॒वेभ्यः॑ परि॒धिं द॑धामि॒ मैषां॒ नु गा॒दप॑रो॒ऽअर्थ॑मे॒तम्।श॒तं जी॑वन्तु श॒रदः॑ पुरू॒चीर॒न्तर्मृ॒त्युं द॑धतां॒ पर्व॑तेन॥१५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इ॒मम्। जी॒वेभ्यः॑। प॒रि॒धिमिति॑ परि॒ऽधिम्। द॒धा॒मि॒। मा। ए॒षा॒म्। नु। गा॒त्। अप॑रः। अर्थ॑म्। ए॒तम् ॥ श॒तम्। जी॒व॒न्तु॒। श॒रदः॑। पु॒रू॒चीः। अ॒न्तः। मृ॒त्युम्। द॒ध॒ता॒म्। पर्व॑तेन ॥१५ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इमञ्जीवेभ्यः परिधिन्दधामि मैषान्नु गादपरो अर्थमेतम् । शतथ्जीवन्तु शरदः पुरूचीरन्तर्मृत्युन्दधताम्पर्वतेन् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    इमम्। जीवेभ्यः। परिधिमिति परिऽधिम्। दधामि। मा। एषाम्। नु। गात्। अपरः। अर्थम्। एतम्॥ शतम्। जीवन्तु। शरदः। पुरूचीः। अन्तः। मृत्युम्। दधताम्। पर्वतेन॥१५॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 35; मन्त्र » 15
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    भावार्थ -
    ( जीवेभ्यः) जीवों की रक्षा के लिये मैं राजा ( इमम् ) इस ( परिधिम् ) नगर के चारों ओर परकोट के समान रक्षा के साधन ( दधामि ) स्थापित करता हूँ । जिससे (अपर: ) दूसरा शत्रु पुरुष (एषाम् ) इन मेरे प्रजाजनों के ( एतम् ) इस ( अर्थम् ) धन को ( मा नु गात् ) प्राप्त न करे । वे प्रजाजन (पुरूची :) बहुत से ऐश्वर्य प्राप्त करने वाले होकर ( शतं शरदः जीवन्तु) सौ-सौ वर्ष जीवें । (पर्वतेन) शत्रु को जिस प्रकार पर्वत आदि अलङध्य पदार्थ से परे रक्खा जाता है उसी प्रकार ( मृत्युम् ) मृत्यु, उसके कारण रूप शत्रु और हिंसक जीवों को भी (पर्वतेन ) पालन- पोषण सामर्थ्यो से युक्त राजा द्वारा तथा पर्व, अध्यायों और काण्डों से युक्त वेद के ज्ञानकाण्ड द्वारा और पर्व अर्थात् बाण आदि शस्त्रों से युक्त सेना द्वारा ( अन्तःदधताम् ) दूर करें ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - संकसुकः । मनुष्यो मृत्युरीश्वरो वा । त्रिष्टुप् । धैवतः ॥

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