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  • यजुर्वेद - अध्याय 35/ मन्त्र 4
    ऋषिः - आदित्या देवा वा ऋषयः देवता - वायुसवितारौ देवते छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः
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    अ॒श्व॒त्थे वो॑ नि॒षद॑नं प॒र्णे वो॑ वस॒तिष्कृ॒ता।गो॒भाज॒ऽइत्किला॑सथ॒ यत्स॒नव॑थ॒ पू॑रुषम्॥४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒श्व॒त्थे। वः॒। नि॒षद॑नम्। नि॒सद॑न॒मिति॑ नि॒ऽसद॑नम्। प॒र्णे। वः॒। व॒स॒तिः। कृ॒ता ॥ गो॒भाज॒ इति॑ गो॒ऽभाजः॑। इ॒त्। किल॑। अ॒स॒थ॒। यत्। स॒नव॑थ। पूरु॑षम्। पुरु॑ष॒मिति॒ पुरु॑षम् ॥४ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अश्वत्थे वो निषदनम्पर्णे वो वसतिष्कृता । गोभाजऽइत्किलासथ यत्सनवथ पूरुषम् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अश्वत्थे। वः। निषदनम्। निसदनमिति निऽसदनम्। पर्णे। वः। वसतिः। कृता॥ गोभाज इति गोऽभाजः। इत्। किल। असथ। यत्। सनवथ। पूरुषम्। पुरुषमिति पुरुषम्॥४॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 35; मन्त्र » 4
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    भावार्थ -
    हे मनुष्यो ! क्योंकि ( वः ) आप लोगों का ( नि- सदनम् ) नियम में रहना ( अश्वत्थे ) अश्वारूढ़ सावधान, क्षत्रिय राजा के अधीन है और (वः वसतिः) आप लोगों का निवासस्थान भी (पर्णे) पालन करने हारे राजा के अधीन (कृतः ) किया गया है, अतः (यत्) जब ( पुरुषम् ) अपने गुरु या अध्यक्ष राजा को (सनवथ ) उसका भाग दे चुको तो आप लोग (गोभाजः) पृथिवी की उपज और वेद वाणी का सेवन करने वाले ( इत् ) ही होकर (किल) निश्चय से (असथ) रहो । व्याख्या देखो भ० ११।७९॥ (२) परमेश्वर के पक्ष में- हे जीवो ! तुम लोगों की स्थिति (अश्वत्थे) कल तक भी स्थिर न रहने वाले, अनित्य और (पर्णे) पत्ते के समान चञ्चल संसार में है । इसलिये (यत्) जब तुम ( पुरुषम् सनवथ ) परमेश्वर की उपासना करो तो (गोभाजः इकिल असथ) वेदवाणी, इन्द्रिय, किरण आदि का सेवन करने वाले ज्ञानवान्, भोगवान् होवो ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - वायुः सविता च । अनुष्टुप् । गान्धारः ॥

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