अथर्ववेद - काण्ड 2/ सूक्त 5/ मन्त्र 1
सूक्त - भृगुराथर्वणः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - निचृदुपरिष्टाद्बृहती
सूक्तम् - इन्द्रशौर्य सूक्त
इन्द्र॑ जु॒षस्व॒ प्र व॒हा या॑हि शूर॒ हरि॑भ्याम्। पिबा॑ सु॒तस्य॑ म॒तेरि॒ह म॒धोश्च॑का॒नश्चारु॒र्मदा॑य ॥
स्वर सहित पद पाठइन्द्र॑ । जु॒षस्व॑ । प्र । व॒ह॒ । आ । या॒हि॒ । शू॒र॒ । हरि॑ऽभ्याम् । पिब॑ । सु॒तस्य॑ । म॒ते: । इ॒ह । मधो॑: । च॒का॒न: । चारु॑: । मदा॑य ॥५.१॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्द्र जुषस्व प्र वहा याहि शूर हरिभ्याम्। पिबा सुतस्य मतेरिह मधोश्चकानश्चारुर्मदाय ॥
स्वर रहित पद पाठइन्द्र । जुषस्व । प्र । वह । आ । याहि । शूर । हरिऽभ्याम् । पिब । सुतस्य । मते: । इह । मधो: । चकान: । चारु: । मदाय ॥५.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 2; सूक्त » 5; मन्त्र » 1
विषय - राजा को उपदेश ।
भावार्थ -
हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यसम्पन्न राजन् ! ( प्र वह ) उत्कृष्ट राज्य को अपने सामर्थ्यवान् कन्धों पर उठा । हे (शूर ) शत्रु के हिंसक वीर ! ( हरिभ्याम् ) युद्धभूमि में रथ को ले जाने वाले घोड़ों से या दायें और बायें चलाने वाले सेनापक्षों के साथ ( आ याहि ) शत्रु पर आक्रमण के निमित्त आ ( मतेः ) मति अर्थात् विचार द्वारा ( सुतस्य ) उत्तम रूपसे निप्पादित अर्थात् सुविचारित ( मधोः ) सारभूत ज्ञान को ( पिब ) पान कर, ग्रहण कर। और यह सोमरूप ज्ञान ( चकानः ) पूर्णरूप से तृप्तिकारी ( मदाय ) सब के आनन्द, हर्ष प्राप्त करने के लिये (चारुः) श्रेष्ठ है । अथवा—हे इन्द्र ! तु इस प्रकार ( मदाय ) प्रजाओं के हर्ष के लिये (चकानः) अति सन्तुष्ट होकर (चारुः) अति हृदयहारी होता है।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - भृगुराथर्वण ऋषिः । इन्द्रो देवता। आद्यया आह्वानमपराभिश्च स्तुतिः । १ निचृदुपरिष्टाद् बृहती, २ विराडुपरिष्टाद् बृहती, ५–७ त्रिष्टुभः । ३ विराट् पथ्याबृहती । ४ जगती पुरो विराट् । सप्तर्चं सूक्तम्॥
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