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अथर्ववेद > काण्ड 2 > सूक्त 5

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  • अथर्ववेद - काण्ड 2/ सूक्त 5/ मन्त्र 3
    सूक्त - भृगुराथर्वणः देवता - इन्द्रः छन्दः - विराट्पथ्याबृहती सूक्तम् - इन्द्रशौर्य सूक्त

    इन्द्र॑स्तुरा॒षाण्मि॒त्रो वृ॒त्रं यो ज॒घान॑ य॒तीर्न। बि॒भेद॑ व॒लं भृगु॒र्न स॑सहे॒ शत्रू॒न्मदे॒ सोम॑स्य ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इन्द्र॑: । तु॒रा॒षाट् । मि॒त्र: । वृ॒त्रम् । य: । ज॒घान॑ । य॒ती: । न । बि॒भेद॑ । व॒लम् । भृगु॑: । न । स॒स॒हे॒ । शत्रू॑न् । मदे॑ । सोम॑स्य ॥५.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इन्द्रस्तुराषाण्मित्रो वृत्रं यो जघान यतीर्न। बिभेद वलं भृगुर्न ससहे शत्रून्मदे सोमस्य ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इन्द्र: । तुराषाट् । मित्र: । वृत्रम् । य: । जघान । यती: । न । बिभेद । वलम् । भृगु: । न । ससहे । शत्रून् । मदे । सोमस्य ॥५.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 2; सूक्त » 5; मन्त्र » 3

    भावार्थ -
    (इन्द्रः) राजा ऐश्वर्यवान् (तुराषाट्) अति शीघ्र ही शत्रु को दबा लेने हारा वही ( मित्रः ) प्रजा का परम मित्र है ( यः ) जो (यतिः न) जिस प्रकार यमनियम के पालन करने हारा योगी जितेन्द्रिय होकर ( वृत्रं ) अपने नियम में बाधक अज्ञान और काम क्रोध आदि विघ्न का नाश करता है उसी प्रकार जो अपने (वृत्रं) राष्ट्र को घेर लेने वाले शत्रु को (जघान) नाश करता है और (भृगुः न) जिस प्रकार सूर्य मेघ को छिन्न भिन्न कर देता है उसी प्रकार जो (वलं) शत्रु के बल सेनाव्यूह को (बिभेद) तोड़ फोड़ डालता है और जो (सोमस्य) ऐश्व के (मदे) प्राप्ति योग होने पर (शत्रून्) शत्रुओं को (ससहे) दबा लेता है वही राजा अपने राष्ट्र का (मित्रः) मित्र है।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - भृगुराथर्वण ऋषिः । इन्द्रो देवता। आद्यया आह्वानमपराभिश्च स्तुतिः । १ निचृदुपरिष्टाद् बृहती, २ विराडुपरिष्टाद् बृहती, ५–७ त्रिष्टुभः । ३ विराट् पथ्याबृहती । ४ जगती पुरो विराट् । सप्तर्चं सूक्तम्॥

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