ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 2/ मन्त्र 3
अत्या॑ वृध॒स्नू रोहि॑ता घृ॒तस्नू॑ ऋ॒तस्य॑ मन्ये॒ मन॑सा॒ जवि॑ष्ठा। अ॒न्तरी॑यसे अरु॒षा यु॑जा॒नो यु॒ष्मांश्च॑ दे॒वान्विश॒ आ च॒ मर्ता॑न् ॥३॥
स्वर सहित पद पाठअत्या॑ । वृ॒ध॒स्नू इति॑ वृ॒ध॒ऽस्नू । रोहि॑ता । घृ॒तस्नू॒ इति॑ घृ॒तऽस्नू॑ । ऋ॒तस्य॑ । म॒न्ये॒ । मन॑सा । जवि॑ष्ठा । अ॒न्तः । ई॒य॒से॒ । अ॒रु॒षा । यु॒जा॒नः । यु॒ष्मान् । च॒ । दे॒वान् । विशः॑ । आ । च॒ । मर्ता॑न् ॥
स्वर रहित मन्त्र
अत्या वृधस्नू रोहिता घृतस्नू ऋतस्य मन्ये मनसा जविष्ठा। अन्तरीयसे अरुषा युजानो युष्मांश्च देवान्विश आ च मर्तान् ॥३॥
स्वर रहित पद पाठअत्या। वृधस्नू इति वृधऽस्नू। रोहिता। घृतस्नू इति घृतऽस्नू। ऋतस्य। मन्ये। मनसा। जविष्ठा। अन्तः। ईयसे। अरुषा। युजानः। युष्मान्। च। देवान्। विशः। आ। च। मर्तान्॥३॥
ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 2; मन्त्र » 3
अष्टक » 3; अध्याय » 4; वर्ग » 16; मन्त्र » 3
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अष्टक » 3; अध्याय » 4; वर्ग » 16; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ प्रजाकृत्यमाह ॥
अन्वयः
हे विद्वन् ! यस्त्वमृतस्य यौ वृधस्नू रोहिता घृतस्नू अरुषा मनसा जविष्ठात्या युजानो देवान् युष्मान् मर्त्तांश्च विशश्चान्तरीयसे तानहं मन्ये ॥३॥
पदार्थः
(अत्या) यावततोऽध्वानं व्याप्नुतस्तौ (वृधस्नू) यौ वृधान् प्रस्रवतस्तौ (रोहिता) रोहितेन वह्निगुणेन सहितौ (घृतस्नू) यौ घृतमुदकं स्नुतः प्रस्रावयतस्तौ (ऋतस्य) जलस्य (मन्ये) (मनसा) (जविष्ठा) अतिशयेन वेगवन्तौ (अन्तः) मध्ये (ईयसे) गच्छसि (अरुषा) रक्तगुणविशिष्टौ (युजानः) (युष्मान्) (च) (देवान्) (विशः) प्रजाः (आ) (च) (मर्त्तान्) मनुष्यान् ॥३॥
भावार्थः
यदि मनुष्या वाय्वग्नी अद्भिः सह यानयन्त्रेषु संयोज्य चालयतस्तर्हि वेगप्रहरणाख्यौ जलवाष्पगुणौ मन इव यानादीनि चालयतः ॥३॥
हिन्दी (3)
विषय
अब इस अगले मन्त्र में प्रजा के कृत्य का वर्णन करते हैं ॥
पदार्थ
हे विद्वन् ! पुरुष जो आप (ऋतस्य) जल की (वृधस्नू) समृद्धि का विस्तार करते हुए (रोहिता) और अग्नि गुण के सहित (घृतस्नू) जल को बहाते हुए (अरुषा) रक्तगुण विशिष्ट (मनसा) मन से भी (जविष्ठा) अत्यन्त वेगवाले (अत्या) मार्ग को व्याप्त होते हुए वायु और अग्नि को (युजानः) संयुक्त करते हुए (देवान्) विद्वान् (युष्मान्) आप लोगों (च) और (मर्त्तान्) साधारण मनुष्यों को (च) और (विशः) प्रजाओं को (अन्तः) मध्य में (आ) सब प्रकार (ईयसे) प्राप्त होते हो, उनको मैं (मन्ये) मानता हूँ ॥३॥
भावार्थ
जो मनुष्य लोग वायु और अग्नि को जलों के साथ वाहन के यन्त्रों में संयुक्त करके चलाते हैं तो वेग और प्रहरण नामक जल और भाफ के गुण, मन के सदृश वाहन आदिकों को चलाते हैं ॥३॥
विषय
इन्द्रियों द्वारा देवों व मर्तों का सम्बन्ध
पदार्थ
[१] (ऋतस्य) = ऋत के, सब कार्यों को बड़ी नियमितता से करनेवाले के (अत्या) = निरन्तर गतिशील इन्द्रियाश्व (वृधस्नू) = वृद्धि के शिखर पर पहुँचनेवाले हैं [स्नु-सानु-शिखर] । ये इन्द्रियाश्व (रोहिता) = प्रादुर्भूत शक्तियोंवाले व तेजस्वी तथा (घृतस्नू) = ज्ञानदीप्ति के शिखर पर पहुँचनेवाले हैं। (मन्ये) = मैं तो ऐसा समझता हूँ कि ये इन्द्रियाश्व (मनसा जविष्ठा) = मन से भी अधिक (वेगवान्) = होते हैं। [२] हे (अग्ने) = परमात्मन्! आप (अरुषा) = इन आरोचमान इन्द्रियाश्वों के द्वारा (युष्मान्) = [युष्माकं] आपके (देवान्) = इन सूर्य आदि देवों को (च) = तथा (विश:) = संसार में प्रवेश करनेवाले, विविध योनियों में आनेवाले, इन (मर्तान्) = मरणधर्मा प्राणियों को (आ युजान:) = सर्वथा जोड़नेवाले होते हैं। 'सूर्य' चक्षु का रूप धारण करके आँख में रहता है, 'वायु' प्राण बनकर नासिका में 'अग्नि' वाक् बनकर मुख में, 'चन्द्रमा' मन बनकर हृदय में रहने लगता है। इसी प्रकार सब देव इन शरीरों में रहते हैं। इस प्रकार देवों व मर्तों का सम्बन्ध स्थापित हो जाता है।
भावार्थ
भावार्थ– 'देव' ही विविध इन्द्रियों के रूप में शरीर में निवास करते हैं। इस प्रकार प्रभु ने देवों व इन्द्रियों को परस्पर जोड़ दिया है ।
विषय
जगत् के राजा के तुल्य प्रभु का वर्णन ।
भावार्थ
जिस प्रकार महारथी ( अत्या युजानः ) वेगवान् दो घोड़ों को रथ में लगाता हुआ ( विशः अन्तः ईयते ) प्रजाओं के बीच में प्रवेश करता है उसी प्रकार हे आत्मन् ( अत्या ) सदा गतिशील, ( वृधस्नू ) शरीर की वृद्धि करने वाले, ( रोहिता ) रक्त वर्णवत् तेजस्वी, ( घृतस्नू ) तेज का सञ्चार कराने वाले, ( मनसा जविष्ठा ) मन के बल से अति अधिक वेग वाले, ( अरुषा ) कान्तिमान् वा उद्वेग से रहित, प्राण और अपान दोनों को, ( युजानः ) योगाभ्यास द्वारा वश करता हुआ तू ( युष्मान् देवान् ) तुम सब अर्थात् स्वरूप से भिन्न २ ज्ञानप्रकाशक और ग्राह्य विषय के अभिलाषी, इन्द्रियगत प्राणों और ( विशः ) प्रवेश करने योग्य ( मर्त्तान् च ) मरणधर्मा शरीरों को भी ( आ ) पूर्णतया व्याप कर ( अन्तः ) उनके भीतर ( ईयसे ) गति करता है । उसको मैं ( मन्ये) ज्ञान करता और आत्मा मानता हूं। ( २ ) इसी प्रकार राष्ट्र में प्रधान पुरुष अपने अधीन ( ऋतस्य मनसा ) सत्य के ज्ञान वा न्याय, ऐश्वर्य से समृद्धिदायक तेजस्वी, दो प्रधान पुरुषों को प्रधान पद पर नियुक्त करके, वह सब विद्वानों, प्रजाओं और वीर पुरुषों के बीच प्रसिद्ध हो ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वामदेव ऋषिः ॥ अग्निदेवता ॥ छन्दः- १, १९ पंक्तिः । १२ निचृत्पंक्तिः । १४ स्वराट् पंक्तिः । २, ४–७, ९, १३, १५, १७, १८, २० निचृत् त्रिष्टुप् । ३, १६ त्रिष्टुप् । ८, १०, ११ विराट् त्रिष्टुप् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
जी माणसे वायू, अग्नी, जल यांना यानयंत्रामध्ये संयुक्त करून चालवितात, ती मनाप्रमाणे वेगवान जलबाष्पयुक्त याने चालवितात. ॥ ३ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Agni, light of the world, I know and realise your waves of cosmic energy ever moving in circuit at the fastest with the energy of the cosmic mind, creating and increasing, sprinkling and showering with water and energy of ghrta, red as rays of the dawn, blazing as the sun, with which you move across the world of existence, inspiring and engaging the mortals, immortals and the human children of the earth.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The duties of the subjects or of general people are told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O learned person ! you harness in the vehicle horses like the air and fire. In fact, they in irrigation grow output of water, which possess the properties of the fire (hydroelectric). It sheds water and is swifter than the mind, and of ruddy hue. Let you go with the help of such vehicles and transports to the enlightened persons and common men-all classes of people.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
If men drive machines in which air and fire have been properly applied, then the properties of water and steam in the form of speed and striking move their vehicles of different kinds like the wind.
Foot Notes
(ऋतस्य) जलस्य । ऋतमित्युदकनाम (NG 1, 12) = Of the water. (घृतम् ) उदकम् । घृतम् इत्युदकनाम । (NG 1, 12) T = Water.
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