ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 87/ मन्त्र 3
प्र ये दि॒वो बृ॑ह॒तः शृ॑ण्वि॒रे गि॒रा सु॒शुक्वा॑नः सु॒भ्व॑ एव॒याम॑रुत्। न येषा॒मिरी॑ स॒धस्थ॒ ईष्ट॒ आ अ॒ग्नयो॒ न स्ववि॑द्युतः॒ प्र स्प॒न्द्रासो॒ धुनी॑नाम् ॥३॥
स्वर सहित पद पाठप्र । ये । दि॒वः । बृ॒ह॒तः । शृ॒ण्वि॒रे । गि॒रा । सु॒ऽशुक्वा॑नः । सु॒ऽभ्वः॑ । ए॒व॒याम॑रुत् । न । येषा॑म् । इरी॑ । स॒धऽस्थे॑ । ईष्टे॑ । आ । अ॒ग्नयः॑ । न । स्वऽवि॑द्युतः । प्र । स्प॒न्द्रासः॑ । धुनी॑नाम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
प्र ये दिवो बृहतः शृण्विरे गिरा सुशुक्वानः सुभ्व एवयामरुत्। न येषामिरी सधस्थ ईष्ट आ अग्नयो न स्वविद्युतः प्र स्पन्द्रासो धुनीनाम् ॥३॥
स्वर रहित पद पाठप्र। ये। दिवः। बृहतः। शृण्विरे। गिरा। सुऽशुक्वानः। सुऽभ्वः। एवयामरुत्। न। येषाम्। इरी। सधऽस्थे। ईष्टे। आ। अग्नयः। न। स्वऽविद्युतः। प्र। स्यन्द्रासः। धुनीनाम् ॥३॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 87; मन्त्र » 3
अष्टक » 4; अध्याय » 4; वर्ग » 33; मन्त्र » 3
अष्टक » 4; अध्याय » 4; वर्ग » 33; मन्त्र » 3
विषय - विद्वानों का कर्त्तव्य ज्ञानप्रसार ।
भावार्थ -
भा० - जो विद्वान् पुरुष, ( बृहतः दिवः ) बड़े तेजस्वी सूर्यवत् ज्ञान प्रकाशक गुरु से ( शृण्विरे ) ज्ञान श्रवण करते हैं और ( एव-यामरुत् ) शिष्य जनों को ज्ञान मार्ग से ले जाने हारे गुरु की ( गिरा ) वाणी से ही ( सु-शुक्कान: ) उत्तम रीति से शुद्ध कान्तियुक्त होकर ( सु-भ्वः) उत्तम सामर्थ्यवान्, ज्ञान बीजों के लिये उत्तम भूमिवत् हैं और ( येषां सधस्थे ) जिनके साथ रहने में ( इरी ) उनका सञ्चालक गुरु भी ( न ईष्टे ) कभी इनको भय या त्रास उत्पन्न नहीं करता, वे आप लोग ( अग्नयः न ) अंग में विनयी, एवं अग्निवत् तेजस्वी, ( स्व-विद्युतः ) स्वयं विशेष दीप्तियुक्त और ( धुनीनाम् ) उत्तम वाणियों के, वा ( स्पन्द्रासः अथवा स्यन्द्रासः प्र ) प्रेरित करने वाले ज्ञान रस को बहाने वाले होवो ।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - एवयामरुद्रात्रेय ऋषिः । मरुतो देवताः ॥ छन्द:- १ अति जगती । २, ८ स्वराड् जगती। ३, ६, ७ भुरिग् जगती । ४ निचृज्जगती । ५, ९ विराड् जगती॥ नवर्चं सूक्तम् ॥
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