ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 14/ मन्त्र 1
ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः
देवता - अग्निः
छन्दः - भुरिगुष्णिक्
स्वरः - ऋषभः
अ॒ग्ना यो मर्त्यो॒ दुवो॒ धियं॑ जु॒जोष॑ धी॒तिभिः॑। भस॒न्नु ष प्र पू॒र्व्य इषं॑ वुरी॒ताव॑से ॥१॥
स्वर सहित पद पाठअ॒ग्ना । यः । मर्त्यः॑ । दुवः॑ । धिय॑म् । जु॒जोष॑ । धी॒तिऽभिः॑ । भस॑त् । नु । सः । प्र । पू॒र्व्यः । इष॑म् । वु॒री॒त॒ । अव॑से ॥
स्वर रहित मन्त्र
अग्ना यो मर्त्यो दुवो धियं जुजोष धीतिभिः। भसन्नु ष प्र पूर्व्य इषं वुरीतावसे ॥१॥
स्वर रहित पद पाठअग्ना। यः। मर्त्यः। दुवः। धियम्। जुजोष। धीतिऽभिः। भसत्। नु। सः। प्र। पूर्व्यः। इषम्। वुरीत। अवसे ॥१॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 14; मन्त्र » 1
अष्टक » 4; अध्याय » 5; वर्ग » 16; मन्त्र » 1
अष्टक » 4; अध्याय » 5; वर्ग » 16; मन्त्र » 1
विषय - अग्निवत् गुरु के अधीन विद्याभ्यास से ज्ञान का वृद्धि ।
भावार्थ -
( यः मर्त्यः ) जो मनुष्य ( धीतिभिः ) उत्तम कर्मों से और अपने कर्म करने के अंगों से और धाराओं वा अध्ययनों से (अग्नौ ) ज्ञानी मार्ग नेता पुरुष के अधीन रहकर ( दुवः ) उपासना या सेवा करता और ( धियं जुजोष ) उत्तम कर्म का आचरण और उत्तम ज्ञान का अभ्यास करता है ( सः नु ) वह शीघ्र ही ( पूर्व्यः ) पूर्व विद्यमान अपने से बड़े ज्ञानी गुरुजनों का हितैषी और उनकी विद्या से सुभूषित होकर ( प्र भसन् ) खूब चमक जाता है। और वह ( अवसे) अपने जीवन रक्षा करने के लिये ( इषं ) उत्तम अन्न और बल भी ( बुरीत) प्राप्त करता है ।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषिः ।। अग्निर्देवता ।। छन्दः – १, ३ भुरिगुष्णिक् । २ निचृत्त्रिष्टुप् । ४ अनुष्टुप् । ५ विराडनुष्टुप् । ६ भुरिगतिजगती ॥ षडृचं सूक्तम् ॥
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