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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 100 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 100/ मन्त्र 10
    ऋषिः - वृषागिरो महाराजस्य पुत्रभूता वार्षागिरा ऋज्राश्वाम्बरीषसहदेवभयमानसुराधसः देवता - इन्द्र: छन्दः - भुरिक्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    स ग्रामे॑भि॒: सनि॑ता॒ स रथे॑भिर्वि॒दे विश्वा॑भिः कृ॒ष्टिभि॒र्न्व१॒॑द्य। स पौंस्ये॑भिरभि॒भूरश॑स्तीर्म॒रुत्वा॑न्नो भव॒त्विन्द्र॑ ऊ॒ती ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सः । ग्रामे॑भिः । सनि॑ता । सः । रथे॑भिः । वि॒दे । विश्वा॑भिः । कृ॒ष्टिऽभिः॑ । नु । अ॒द्य । सः । पौंस्ये॑भिः । अ॒भि॒ऽभूः । अश॑स्तीः । म॒रुत्वा॑न् । नः॒ । भ॒व॒तु॒ । इन्द्रः॑ । ऊ॒ती ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स ग्रामेभि: सनिता स रथेभिर्विदे विश्वाभिः कृष्टिभिर्न्व१द्य। स पौंस्येभिरभिभूरशस्तीर्मरुत्वान्नो भवत्विन्द्र ऊती ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सः। ग्रामेभिः। सनिता। सः। रथेभिः। विदे। विश्वाभिः। कृष्टिऽभिः। नु। अद्य। सः। पौंस्येभिः। अभिऽभूः। अशस्तीः। मरुत्वान्। नः। भवतु। इन्द्रः। ऊती ॥ १.१००.१०

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 100; मन्त्र » 10
    अष्टक » 1; अध्याय » 7; वर्ग » 9; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ।

    अन्वयः

    यो मरुत्वानिन्द्रो सेनाद्यधिपतिर्ग्रामेभिः सह सनिता धनानि भुङ्क्ते स आनन्दी जायते, यो विदे रथेभिर्विश्वाभिः कृष्टिभिश्च प्रकाशते स यश्चाशस्तीः क्रिया विदित्वाभिभूर्भवति स पौंस्येभिर्न्वद्य न ऊती भवतु ॥ १० ॥

    पदार्थः

    (सः) (ग्रामेभिः) ग्रामस्थैः प्रजापुरुषैः (सनिता) संविभक्तानि (सः) (रथेभिः) विमानादिभिः सेनाङ्गैः (विदे) विदन्ति युद्धविद्या विजयान् वा यया क्रियया तस्यै। अत्र संपदादित्वात् क्विप्। (विश्वाभिः) समग्राभिः (कृष्टिभिः) विलेखनक्रियाभिः (नु) सद्यः (अद्य) अस्मिन्नहनि (सः) (पौंस्येभिः) उत्कृष्टैः शरीरात्मबलैः सह वर्त्तमानः (अभिभूः) शत्रूणां तिरस्कर्त्ता (अशस्तीः) अप्रशंसनीयाः शत्रुक्रियाः (मरुत्वान्नो०) इति पूर्ववत् ॥ १० ॥

    भावार्थः

    मनुष्यैर्यः पुरनगरग्रामाणां सम्यग्रक्षिता पूर्णसेनाङ्गसामग्रीसहितो विदितकलाकौशलशस्त्रास्त्रयुद्धक्रियः पूर्णविद्याबलाभ्यां पुष्टः शत्रूणां पराजयेन प्रजापालनप्रसन्नो भवति स एव सेनाद्यधिपतिः कर्त्तव्यो नेतरः ॥ १० ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर वह कैसा है, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    जो (मरुत्वान्) अपनी सेना में उत्तम वीरों को राखनेहारा (इन्द्रः) परमैश्वर्य्यवान् सेना आदि का अधीश (ग्रामेभिः) ग्रामों में रहनेवाले प्रजाजनों के साथ (सनिता) अच्छे प्रकार अलग-अलग किये हुए धनों को भोगता है (सः) वह आनन्दित होता है। जो (विदे) युद्धविद्या तथा विजयों को जिससे जाने, उस क्रिया के लिये (रथेभिः) सेना के विमान आदि अङ्गों और (विश्वाभिः) समस्त (कृष्टिभिः) शिल्प कामों की अति कुशलताओं से प्रकाशमान हो (सः) वह और जो (अशस्तीः) शत्रुओं की बड़ाई करने योग्य क्रियाओं को जानकर उनका (अभिभूः) तिरस्कार करनेवाला है (सः) वह (पौंस्येभिः) उत्तम शरीर और आत्मा के बल के साथ वर्त्तमान (नु) शीघ्र (अद्य) आज (नः) हम लोगों के (ऊती) रक्षा आदि व्यवहारों के लिये (भवतु) होवे ॥ १० ॥

    भावार्थ

    मनुष्यों को चाहिये कि जो पुर, नगर और ग्रामों का अच्छे प्रकार रक्षा करनेवाला वा पूर्ण सेनाङ्गों की सामग्री सहित जिसने कलाकौशल तथा शस्त्र-अस्त्रों से युद्धक्रिया को जाना हो और परिपूर्ण विद्या तथा बल से पुष्ट शत्रुओं के पराजय से प्रजा की पालना करने में प्रसन्न होता है, वही सेना आदि का अधिपति करने योग्य है, अन्य नहीं ॥ १० ॥

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    विषय

    अप्रशस्तता का अभिभव

    पदार्थ

    १. (सः) = वे प्रभु (ग्रामेभिः) = मरुतों के संघों व प्राणों के द्वारा (सनिता) = सब - कुछ प्राप्त करानेवाले हैं । प्राणसाधना से शरीर नीरोग बनता है और बल की वृद्धि होती है । मन के मैल भी इस प्राण - साधना से दूर होते हैं और बुद्धि तीव्र होकर सूक्ष्म - से - सूक्ष्म विषय को समझनेवाली बनती है । एवं , इन मरुतों व प्राणों से स्वास्थ्य , बल , नैर्मल्य व बुद्धि की तीव्रता सभी कुछ प्राप्त होता है । 

    २. (सः) = वे प्रभु (नु अद्य) = निश्चय से आज (विश्वाभिः कृष्टिभिः) = सब श्रमशील पुरुषों से (रथेभिः) = इन शरीररूप रथों से (विदे) = जाने जाते हैं । इस शरीर की रचना में उस रचयिता की महिमा का इन कृष्टियों को दर्शन होता है । आलसी मनुष्य तमस् की परिणामभूत मोहावस्था के कारण इस महिमा को नहीं देख पाता । 

    ३. (सः) = वे प्रभु (पौंस्येभिः) = वीरताओं से - शक्तियों से (अशस्तीः) = सब अशुभ भावनाओं को (अभिभूः) = अभिभूत करनेवाले होते हैं । प्रभु हममें वीरता की स्थापना करते हैं । यह वीरता का स्थापन गुणों का मूल बनता है । वीरता से सब अशुभों का संहार होता है । 

    ४. ये (मरुत्वान् इन्द्रः) = मरुतों - प्राणोंवाले परमैश्वर्यशाली प्रभु (नः) = हमारे (ऊती) = रक्षण के लिए (भवतु) = हों । 
     

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रभु प्राणों के द्वारा वीरता का स्थापन करके अप्रशस्तता का विनाश करते हैं । 
     

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    विषय

    उसके कर्तव्य ।

    भावार्थ

    ( सः सनिता ) वह ऐश्वर्यो का दान करने हारा तथा उत्तम स्वामी होकर ( रथेभिः ) रथों, रथारोही सैनिकों से तथा ( ग्रामेभिः ) ग्रामों, जनसमूहों तथा सैन्यसमूहों से और ( विश्वाभिः ) समस्त ( कृष्टिभिः ) कृषि करने वाली प्रजाओं से और ( सः ) वह ( पौंस्येभिः ) बलवीर्य पराक्रमों से युक्त होकर (विदे) विजय लाभ के लिये ( नु अद्य ) अब के समान सदा ही, अति शीघ्र ( अशस्तीः ) दुर्दमनीय, असाध्य शत्रुओं को भी ( अभिभूः ) वश करने हारा हो वह ( मरुत्वान् इन्द्रः नः ऊती भवतु ) वीर भटों का स्वामी सेनापति या राजा हम प्रजाजनों का रक्षक हो । इति नवमो वर्गः ॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वृषागिरो महाराजस्य पुत्रभूता वार्षागिरा ऋज्राश्वाम्बरीषसहदेव भयमानसुराघस ऋषयः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः– १, ५ पङ्क्तिः ॥ २, १३, १७ स्वराट् पङ्क्तिः । ३, ४, ११, १८ विराट् त्रिष्टुप् । ६, १०, १६ भुरिक पङ्क्तिः । ७,८,९,१२,१४, १५, १९ निचृत् त्रिष्टुप् ॥ एकोन विंशत्यृचसूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जो पूर, नगर व गावाचे चांगल्या प्रकारे रक्षण करतो, पूर्ण सेनांगाच्या सामग्रीसह ज्याने कलाकौशल्य व शस्त्र-अस्त्राने युद्धविद्येची क्रिया जाणलेली आहे तसेच परिपूर्ण विद्या व बलाने पुष्ट असून शत्रूंचा पराजय करून प्रजेचे पालन करतो व प्रसन्न होतो तोच सेना इत्यादीचा अधिपती बनण्यायोग्य आहे, इतर नव्हे. ॥ १० ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    He shares the wealth of the nation with the farming people in the villages, warriors of the chariot, and all sections of the people without exception, and thus he faces and overcomes all shades of criticism and opposition with the strength of his body, mind and soul and his noble actions for the sake of mutual confidence and understanding for harmony. May he, commander of the Maruts, be our protector for progress and prosperity in unison and freedom.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How is Indra is taught further in the tenth Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    May that Indra (Commander of the Army etc.) be our protector with his power, who shares wealth with the people of the villages. He thus becomes full of delight and bliss. He is a benefactor, is quickly recognised by all men to-day as he shines with air craft and other vehicles. By his manly energies, he is victor over unruly adversaries, knowing their evils, he overcomes them with his might.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (सनिता) संविभक्तानि धनानि = Divided wealth. वन-संविभक्तौ ।

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Men should appoint as Commander of the army only such a person, who is guardian or preserver of the cities, towns and villages, who is expert in arts and industries, in the sciences of war and endowed with thorough knowledge and strength, ever happy in preserving the subjects and getting victory over his adversaries. It is such a person only who should be chosen as a Commander of the Army.

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