ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 100/ मन्त्र 9
ऋषिः - वृषागिरो महाराजस्य पुत्रभूता वार्षागिरा ऋज्राश्वाम्बरीषसहदेवभयमानसुराधसः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
स स॒व्येन॑ यमति॒ व्राध॑तश्चि॒त्स द॑क्षि॒णे संगृ॑भीता कृ॒तानि॑। स की॒रिणा॑ चि॒त्सनि॑ता॒ धना॑नि म॒रुत्वा॑न्नो भव॒त्विन्द्र॑ ऊ॒ती ॥
स्वर सहित पद पाठसः । स॒व्येन॑ । य॒म॒ति॒ । व्राध॑तः । चि॒त् । सः । द॒क्षि॒णे । सम्ऽगृ॑भीता । कृ॒तानि॑ । सः । की॒रिणा॑ । चि॒त् । सनि॑ता । धना॑नि । म॒रुत्वा॑न् । नः॒ । भ॒व॒तु॒ । इन्द्रः॑ । ऊ॒ती ॥
स्वर रहित मन्त्र
स सव्येन यमति व्राधतश्चित्स दक्षिणे संगृभीता कृतानि। स कीरिणा चित्सनिता धनानि मरुत्वान्नो भवत्विन्द्र ऊती ॥
स्वर रहित पद पाठसः। सव्येन। यमति। व्राधतः। चित्। सः। दक्षिणे। सम्ऽगृभीता। कृतानि। सः। कीरिणा। चित्। सनिता। धनानि। मरुत्वान्। नः। भवतु। इन्द्रः। ऊती ॥ १.१००.९
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 100; मन्त्र » 9
अष्टक » 1; अध्याय » 7; वर्ग » 9; मन्त्र » 4
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अष्टक » 1; अध्याय » 7; वर्ग » 9; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ।
अन्वयः
यः सव्येन स्वसेन्येन व्राधतश्चिद्यमति स विजयी जायते यो दक्षिणे संगृभीता कृतानि कर्माणि नियमयति स स्वसेनां रक्षितुं शक्नोति यः कीरिणा चित् शत्रुभिः सनिता धनानि स्वीकरोति स मरुत्वानिन्द्रः सेनापतिर्न ऊती भवतु ॥ ९ ॥
पदार्थः
(सः) (सव्येन) सेनाया वामभागेन (यमति) नियमयति। अत्र छन्दस्युभयथेति शप आर्द्धधातुकत्वाण्णिलोपः। (व्राधतः) अतिप्रवृद्धान् शत्रून् (चित्) अपि (सः) (दक्षिणे) दक्षिणभागस्थेन सैन्येन। अत्र सुपां सुलुगिति तृतीयास्थाने शेआदेशः। (संगृभीता) सम्यग्गृहीतानि सेनाङ्गानि। अत्र ग्रहधातोर्हस्य भत्वम्। अत्र सायणाचार्येण सुबन्तं तिङन्तं साधितमतोऽशुद्धमेव निघाताभावात्। (कृतानि) कर्माणि (सः) (कीरिणा) शत्रूणां विक्षेपकेन प्रबन्धेन (चित्) अपि (सनिता) संभक्तानि। अत्र वनसन संभक्ताविति धातोर्बाहुलकात्तन्प्रत्ययः। (धनानि) (मरुत्वान्नो०) इति पूर्ववत् ॥ ९ ॥
भावार्थः
यः सेनाव्यूहान् सेनाङ्गशिक्षारक्षणविज्ञानं पूर्णां युद्धसामग्रीञ्चार्जितुं शक्नोति स एव शत्रुपराजयेन विजये प्रजारक्षणे च योग्यो भवति ॥ ९ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर वह कैसा है, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
जो (सव्येन) सेना के दाहिनी ओर खड़ी हुई अपनी सेना से (व्राधतः) अत्यन्त बल बढ़े हुए शत्रुओं को (चित्) भी (यमति) ढङ्ग में चलाता है, वह उन शत्रुओं का जीतनेहारा होता है। जो (दक्षिणे) दाहिनी ओर में खड़ी हुई उस सेना से (संगृभीता) ग्रहण किये हुए सेना के अङ्गों तथा (कृतानि) किये हुए कामों को यथोचित नियम में लाता है (सः) वह अपनी सेना की रक्षा कर सकता है। जो (कीरिणा) शत्रुओं के गिराने के प्रबन्ध से (चित्) भी उनके (सनिता) अच्छी प्रकार इकठ्ठे किये हुए (धनानि) धनों को ले लेता है (सः) वह (मरुत्वान्) अपनी सेना में उत्तम-उत्तम वीरों को राखनेहारा (इन्द्रः) परमैश्वर्यवान् सेनापति (नः) हम लोगों के (ऊती) रक्षा आदि व्यवहारों के लिये (भवतु) हो ॥ ९ ॥
भावार्थ
जो सेना की रचनाओं और सेना के अङ्गों की शिक्षा वा रक्षा के विशेष ज्ञान को तथा पूर्ण युद्ध की सामग्री को इकठ्ठा कर सकता है, वही शत्रुओं को जीत लेने से अपनी और प्रजा की रक्षा करने के योग्य है ॥ ९ ॥
विषय
पुरुषार्थ और विजय
पदार्थ
१. (सः) = वे प्रभु (व्राधतः चित्) = हिंसा करनेवाले महान् क्रोधादि शत्रुओं को भी (सव्येन यमति) = बायें हाथ से काबू कर लेते हैं । इन काम - क्रोधादि शत्रुओं को काबू करना प्रभु के लिए तो बायें हाथ का खेल है । हमारे लिए ही ये शत्रु भयंकर हैं , प्रभु के सामने ये नितान्त अशक्त हैं ।
२. (सः) = वे प्रभु (दक्षिणे) = दाहिने हाथ में (कृतानि) = कर्मों को (संग्रभीता) = ग्रहण करनेवाले हैं “स्वाभाविकी ज्ञानबलक्रिया च” - क्रिया तो प्रभु का स्वभाव ही है । वस्तुतः क्रिया के कारण ही प्रभु विजय के भी ईश हैं , अतः प्रभुभक्त भी क्रियाशील बनता है और काम - क्रोधादि पर विजय पाता है ।
३. (सः) = वे प्रभु (कीरिणा) = स्तोता के साथ (चित्) = निश्चय से (धनानि) = धनों को (सनिता) = संभक्त करनेवाले हैं । प्रभु का स्तोता वही है जो कर्मों के द्वारा विजय प्राप्त करता है - “कृतं मे दक्षिणे हस्ते जयो मे सव्य आहितः” - इन शब्दों में उसका ध्येय यही होता है कि मेरे दाहिने हाथ में कर्म है और बायें हाथ में विजय । वस्तुतः इसी प्रकार यह व्यक्ति प्रभु के अनुरूप बनता है - अनुरूप बनकर ही सच्चा भक्त होता है ।
४. यह भक्त प्रार्थना करता है कि (मरुत्वान् इन्द्रः) = वायुओं व प्राणोंवाले ये प्रभु (नः) = हमारी (ऊती) = रक्षा के लिए (भवतु) = हों । शुद्ध वायुसेवन व प्राणसाधना हमें क्रियाशील बनने में सहायक होते हैं । क्रियाशील बनकर हम विजयी बनते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ - प्रभु की सच्ची भक्ति यही है कि हम क्रियामय जीवनवाले होकर कामादि शत्रुओं पर विजय प्राप्त करनेवाले हों ।
विषय
उसके कर्तव्य ।
भावार्थ
( सः ) वह वीर पुरुष, सेना नायक ( व्राधतः चित् ) अपने बढ़े और उमड़ते हुए बड़े २ शत्रुओं को भी ( सव्येन ) अपनी बाईं भुजा से ( यमति ) वश करे। या अपने बाईं तरफ़ की सेना से वह शत्रुओं को बांध ले। और ( सः ) वह ( दक्षिणे ) दायें हाथ में ( कृतानि ) अपने पराक्रम से किये विजय आदि कर्म तथा प्राप्त किये हुए ऐश्वर्यों को और ( कृतानि ) सिद्ध हस्त सैन्यों को ( संगृभीता ) अच्छी प्रकार वश करे ( सः ) वह ( कीरिणा चित् ) शत्रु को उखाड़ फेंकने वाले बल से ( धनानि सनिता ) ऐश्वर्यों को प्राप्त करता अन्यों को प्राप्त कराता है । वह ( मरुत्वान् इन्द्रः ) वीर भटों का स्वामी वीर सेनापति ( नः ऊती भवतु ) हमारी रक्षा के लिये हो ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वृषागिरो महाराजस्य पुत्रभूता वार्षागिरा ऋज्राश्वाम्बरीषसहदेव भयमानसुराघस ऋषयः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः– १, ५ पङ्क्तिः ॥ २, १३, १७ स्वराट् पङ्क्तिः । ३, ४, ११, १८ विराट् त्रिष्टुप् । ६, १०, १६ भुरिक पङ्क्तिः । ७,८,९,१२,१४, १५, १९ निचृत् त्रिष्टुप् ॥ एकोन विंशत्यृचसूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
जो सेनेची रचना व सेनेच्या अंगांचे शिक्षण व रक्षणाचे विशेष ज्ञान तसेच पूर्ण युद्धसाहित्य एकत्रित करू शकतो. तोच शत्रूंना जिंकून आपले व प्रजेचे रक्षण करण्यास समर्थ असतो. ॥ ९ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
With his left hand he overcomes even the strong oppositions, and with the right he holds and secures the fruits of his success. With his acts of success and assessment, he manages and distributes the wealth of the nation. May he, commander of the Maruts, be our protector for freedom and progress.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
How is Indra is taught further in the ninth Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
May Indra (Commander of the Army ) be our protector who with his army on the left side, restrains even great malignant enemies and gets victory, who with the army on his right side, controls the works he has taken in hand. It is such a commander that can protect his army; he gets back the riches distributed among the inimical forces by his proper and efficient arrangements for scattering his adversaries.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(व्राधत:) अति प्रवृद्धान् शत्रून् = Powerful enemies. (कीरिणा) शत्रूणां विक्षेपकेन प्रबन्धेन = By the arrangement of vanquishing enemies.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Only such a commander of the army who can get victory and is fit to protect his subjects, who can collect different arrays of the army, can train and preserve parts of the army by overcoming foes.
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