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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 114 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 114/ मन्त्र 3
    ऋषिः - कुत्स आङ्गिरसः देवता - रुद्रः छन्दः - विराड्जगती स्वरः - निषादः

    अ॒श्याम॑ ते सुम॒तिं दे॑वय॒ज्यया॑ क्ष॒यद्वी॑रस्य॒ तव॑ रुद्र मीढ्वः। सु॒म्ना॒यन्निद्विशो॑ अ॒स्माक॒मा च॒रारि॑ष्टवीरा जुहवाम ते ह॒विः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒श्याम॑ । ते॒ । सु॒ऽम॒तिम् । दे॒व॒ऽय॒ज्यया॑ । क्ष॒यत्ऽवी॑रस्य । तव॑ । रु॒द्र॒ । मी॒ढ्वः॒ । सु॒म्न॒ऽयन् । इत् । विशः॑ । अ॒स्माक॑म् । आ । च॒र॒ । अरि॑ष्टऽवीराः । जु॒ह॒वा॒म॒ । ते॒ । ह॒विः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अश्याम ते सुमतिं देवयज्यया क्षयद्वीरस्य तव रुद्र मीढ्वः। सुम्नायन्निद्विशो अस्माकमा चरारिष्टवीरा जुहवाम ते हविः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अश्याम। ते। सुऽमतिम्। देवऽयज्यया। क्षयत्ऽवीरस्य। तव। रुद्र। मीढ्वः। सुम्नऽयन्। इत्। विशः। अस्माकम्। आ। चर। अरिष्टऽवीराः। जुहवाम। ते। हविः ॥ १.११४.३

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 114; मन्त्र » 3
    अष्टक » 1; अध्याय » 8; वर्ग » 5; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ।

    अन्वयः

    हे मीढ्वो रुद्र सभाध्यक्ष राजन् वयं देवयज्यया क्षयद्वीरस्य तव सुमतिमश्याम यः सुम्नयँस्त्वमस्माकमरिष्टवीरा विश आचर समन्तात्प्राप्नुयाः तस्य ते तव वयमिदश्याम ते तुभ्यं हविर्जुहवाम च ॥ ३ ॥

    पदार्थः

    (अश्याम) प्राप्नुयाम (ते) तव (सुमतिम्) शोभनां बुद्धिम् (देवयज्यया) विदुषां सङ्गत्या सत्कारेण च (क्षयद्वीरस्य) क्षयन्तो निवासिता वीरा येन तस्य (तव) (रुद्र) रुतः सत्योपदेशान् राति ददाति तत्संबुद्धौ (मीढ्वः) सुखैः सिञ्चन् (सुम्नयन्) सुखयन् (इत्) अपि (विशः) प्रजाः (अस्माकम्) (आ) (चर) (अरिष्टवीराः) अरिष्टा अहिंसिता वीरा यासु ताः (जुहवाम) दद्याम (ते) तुभ्यम् (हविः) ग्रहीतुं योग्यं करम् ॥ ३ ॥

    भावार्थः

    राज्ञा प्रजाः सततं सुखयितव्याः प्रजाभी राजा च यदि राजा प्रजाभ्यः करं गृहीत्वा न पालयेत्तर्हि स राजा दस्युवद्विज्ञेयः या पालिताः प्रजा राजभक्ता न स्युस्ता अपि चोरतुल्या बोध्या अतएव प्रजा राज्ञे करं ददति यतोऽयमस्माकं पालनं कुर्य्यात् राजाप्येतत्प्रयोजनाय पालयति यतः प्रजा मह्यं करं प्रदद्युः ॥ ३ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    हे (मीढ्वः) प्रजा को सुख से सींचने और (रुद्र) सत्योपदेश करनेवाले सभाध्यक्ष राजन् ! हम लोग (देवयज्यया) विद्वानों की सङ्गति और सत्कार से (क्षयद्वीरस्य) वीरों का निवास करानेहारे (तव) तेरी (सुमतिम्) श्रेष्ठ प्रज्ञा को (अश्याम) प्राप्त होवें, जो (सुम्नयन्) सुख कराता हुआ तू (अस्माकम्) हमारी (अरिष्टवीराः) हिंसारहित वीरोंवाली (विशः) प्रजाओं को (आ, चर) सब ओर से प्राप्त हो, उस (ते) तेरी प्रजाओं को हम लोग (इत्) भी प्राप्त हों और (ते) तेरे लिये (हविः) देने योग्य पदार्थ को (जुहवाम) दिया करें ॥ ३ ॥

    भावार्थ

    राजा को योग्य है कि प्रजाओं को निरन्तर प्रसन्न रक्खे और प्रजाओं को उचित है कि राजा को आनन्दित करें। जो राजा प्रजा से कर लेकर पालन न करे तो वह राजा डाकुओं के समान जानना चाहिये। जो पालन की हुई प्रजा राजभक्त न हों वे भी चोर के तुल्य जाननी चाहिये, इसलिये प्रजा राजा को कर देती है कि जिससे यह हमारा पालन करे और राजा इसलिये पालन करता है कि जिससे प्रजा मुझको कर देवें ॥ ३ ॥

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    विषय

    देवयज्ञ से सुमति - लाभ

    पदार्थ

    १. हे (रुद्र) = ज्ञान देनेवाले ! (मीढ्वः) = ज्ञान के द्वारा सुखों का वर्षण करनेवाले प्रभो ! हम (ते) = आपके (देवयज्यया) = उपदिष्ट देवयज्ञ के द्वारा (क्षयद्वीरस्य) = वीरों में निवास करनेवाले (तव) = आपकी (सुमतिम्) = कल्याणी मति को (अश्याम) = प्राप्त करें । देवयज्ञ से सौमनस्य प्राप्त होता है , बुद्धि स्वस्थ होकर प्रभु की ज्ञानवाणियों को ठीक से ग्रहण करनेवाली बनती है । देवयज्या शब्द का अर्थ देववृत्ति के विद्वानों के साथ सम्पर्क भी है । इन विद्वानों के सम्पर्क से हम प्रभु की वेदोपदिष्ट सुमति को प्राप्त करते हैं । २. हे प्रभो ! आप ज्ञान प्राप्त कराने के द्वारा (इत्) = निश्चय से (सुम्नायन्) = हमारे सुख को चाहते हुए ही (अस्माकं विशः) = हमारी इन सब प्रजाओं में (आचर ) = विचरण कीजिए । हे प्रभो ! आपकी विद्यमानता में (अरिष्टवीराः) = अहिंसित वीरोंवाले होते हुए हम (ते हवि जुहवाम) = आपके प्रति हवि अर्पण करनेवाले हों । वस्तुतः हवि के द्वारा ही तो आपका पूजन होता है । दानपूर्वक अदन - यज्ञशेष का सेवन ही हवि है । यही प्रभु - पूजा का प्रकार है ।

    भावार्थ

    भावार्थ - देवयज्ञ के द्वारा हम प्रभु की सुमति को प्राप्त करें , दानपूर्वक अदन से प्रभुपूजन करनेवाले बनें ।

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    विषय

    सेनापति का वर्णन ।

    भावार्थ

    हे (रुद्र) रुद्र ! उपदेशों के देने हारे ! हे ( मीढ्वः ) प्रजाओं पर सुखों की वर्षा करने हारे ! हम लोग ( क्षयद्-वीरस्य ) वीर पुरुषों को बसाने वाले ( ते ) तेरी ( सुमतिं ) शुभ मति को ( देवयज्याय ) विद्वान् पुरुषों के सत्संग द्वारा ( अश्याम ) प्राप्त करें। तू ( अस्माकम् ) हमारी ( विशः ) प्रजाओं को (सुम्नयन्) सुखी करता हुआ ( इत् ) ही ( आचर ) सर्वत्र विचरण कर। और हम ( अरिष्टवीराः ) सुखी, अहिंसित वीर पुरुषों और पुत्रों के साथ ( ते हविः आजुहवाम ) तेरे लिये अन्न आदि कर प्रदान करें ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कुत्स आङ्गिरस ऋषिः॥ रुद्रो देवता॥ छन्दः- १ जगती । २, ७ निचृज्जगती । ३, ६, ८, ९ विराड् जगती च । १०, ४, ५, ११ भुरिक् त्रिष्टुप् निचृत् त्रिष्टुप् ॥ एकादशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    राजाने प्रजेला निरंतर प्रसन्न ठेवावे व प्रजेने राजाला आनंदित करावे. जो राजा प्रजेकडून कर घेतो व त्यांचे पालन करीत नाही त्या राजाला लुटारूप्रमाणे समजावे. जर पालन केलेली प्रजा राजभक्त नसेल तर तीही चोराप्रमाणे समजली पाहिजे. प्रजा राजाला कर यासाठी देते की त्याने प्रजेचे पालन करावे व राजाने त्यांचे यासाठी पालन करावे की प्रजेने त्याला कर द्यावा. ॥ ३ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Rudra, good and generous, protector of the brave, may we attain the favour of your wisdom and advice by worship and homage to you. With our heroes of the nation unhurt and protected, we offer gifts of oblations and homage to you. Come, we pray, be kind and gracious to our people.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The same subject is continued.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O President of the Assembly giver of true teaching and showerer of happiness, May we obtain through the honor and association of the enlightened persons, your wisdom and favor, who are the giver of shelter to the heroes. Promoting the happiness of the subjects whose heroes are in safety, you may receive them well from all sides and we may also receive them lovingly and pay due taxes to you with pleasure.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (रुद्र) रुत: सत्योपदेशान् राति-ददाति तत्सम्बुद्धौ = Giver of true teachings (रु-शब्दे, रा-दाने ) Tr. (देवयज्यया) विदुषां संगत्या सत्कारेरण च = with the association and honor of the enlightened persons. (यज-देवपूजा संगतिकरणदानेषु) (हवि:) ग्रहीतुं योग्यं करम् = Tax that is to be received from the subjects.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    The King should always bestow happiness upon his subjects and they should please him. If a king does not protect his subjects well having received taxes, he should be known as a robber. The subjects also should be regarded as thieves if they are not loyal to the king even when properly guarded by him. It is with the object of getting protection from him, that the subjects pay taxes to him.

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