ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 114/ मन्त्र 6
इ॒दं पि॒त्रे म॒रुता॑मुच्यते॒ वच॑: स्वा॒दोः स्वादी॑यो रु॒द्राय॒ वर्ध॑नम्। रास्वा॑ च नो अमृत मर्त॒भोज॑नं॒ त्मने॑ तो॒काय॒ तन॑याय मृळ ॥
स्वर सहित पद पाठइ॒दम् । पि॒त्रे । म॒रुता॑म् । उ॒च्य॒ते॒ । वचः॑ । स्वा॒दोः । स्वादी॑यः । रु॒द्राय॑ । वर्ध॑नम् । रास्व॑ । च॒ । नः॒ । अ॒मृ॒त॒ । म॒र्त॒ऽभोज॑नम् । त्मने॑ । तो॒काय । तन॑याय । मृ॒ळ॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
इदं पित्रे मरुतामुच्यते वच: स्वादोः स्वादीयो रुद्राय वर्धनम्। रास्वा च नो अमृत मर्तभोजनं त्मने तोकाय तनयाय मृळ ॥
स्वर रहित पद पाठइदम्। पित्रे। मरुताम्। उच्यते। वचः। स्वादोः। स्वादीयः। रुद्राय। वर्धनम्। रास्व। च। नः। अमृत। मर्तऽभोजनम्। त्मने। तोकाय। तनयाय। मृळ ॥ १.११४.६
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 114; मन्त्र » 6
अष्टक » 1; अध्याय » 8; वर्ग » 6; मन्त्र » 1
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अष्टक » 1; अध्याय » 8; वर्ग » 6; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनर्वैद्योपदेशकौ कथं वर्त्तेयातामित्युपदिश्यते ।
अन्वयः
हे अमृत विद्वान् वैद्यराजोपदेशक वा त्वं नो अस्मभ्यमस्माकम् वा त्मने तोकाय तनयाय च स्वादोः स्वादीयो मर्त्तभोजनं रास्वा यदिदं मरुतां वर्धनं वचः पित्रे रुद्राय त्वयोच्यते तेनास्मान् मृड ॥ ६ ॥
पदार्थः
(इदम्) (पित्रे) पालकाय (मरुताम्) ऋतावृतौ यजतां विदुषाम् (उच्यते) उपदिश्यते (वचः) वचनम् (स्वादोः) स्वादिष्ठात् (स्वादीयः) अतिशयेन स्वादु प्रियकरम् (रुद्राय) सभाध्यक्षाय (वर्धनम्) वृद्धिकरम् (रास्वा) देहि। अत्र द्व्यचोऽतस्तिङ इति दीर्घः। (च) अनुक्तसमुच्चये (नः) अस्मभ्यमस्माकं वा (अमृत) नास्ति मृतं मरणदुःखं येन तत्सम्बुद्धौ (मर्तभोजनम्) मर्त्तानां मनुष्याणां भोग्यं वस्तु (त्मने) आत्मने (तोकाय) ह्रस्वाय बालकाय (तनयाय) यूने पुत्राय (मृड) सुखय ॥ ६ ॥
भावार्थः
वैद्यस्योपदेशकस्य चेयं योग्यतास्ति स्वयमरोगः सत्याचारी भूत्वा सर्वेभ्यो मनुष्येभ्य औषधदानेनोपदेशेन चोपकृत्य सर्वान् सततं रक्षेत् ॥ ६ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर वैद्य और उपदेश करनेवाले कैसे अपना वर्त्ताव वर्त्तें, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
हे (अमृत) मरण दुःख दूर कराने तथा आयु बढ़ानेहारे वैद्यराज वा उपदेशक विद्वान् ! आप (नः) हमारे (त्मने) शरीर (तोकाय) छोटे-छोटे बाल-बच्चे (तनयाय) ज्वान बेटे (च) और सेवक वैतनिक वा आयुधिक भृत्य अर्थात् नौकर-चाकरों के लिये (स्वादोः) स्वादिष्ठ से (स्वादीयः) स्वादिष्ठ अर्थात् सब प्रकार स्वादवाला जो खाने में बहुत अच्छा लगे उस (मर्त्यभोजनम्) मनुष्यों के भोजन करने के पदार्थ को (रास्व) देओ, जो (इदम्) यह (मरुताम्) ऋतु-ऋतु में यज्ञ करनेहारे विद्वानों को (वर्द्धनम्) बढ़ानेवाला (वचः) वचन (पित्रे) पालना करने (रुद्राय) और दुष्टों को रुलानेहारे सभाध्यक्ष के लिये (उच्यते) कहा जाता है, उससे हम लोगों को (मृड) सुखी कीजिये ॥ ६ ॥
भावार्थ
वैद्य और उपदेश करनेवाले को यह योग्य है कि आप नीरोग और सत्याचारी होकर सब मनुष्यों के लिये औषध देने और उपदेश करने से उपकार कर सबकी निरन्तर रक्षा करें ॥ ६ ॥
विषय
मर्तभोजन की प्राप्ति
पदार्थ
१. मरुत् प्राण हैं । प्रभु सबसे प्रथम प्राण को ही उत्पन्न करते हैं - ‘स प्राणमसृजत्’ । इस प्रकार वे प्रभु मरुतों के पिता हैं । (मरुतां पित्रे) = प्राणों के जनक व रक्षक उस प्रभु के लिए (इदम्) = यह (स्वादोः स्वादीयः) = स्वादु से भी स्वादु - अत्यन्त स्वादिष्ठ , एक अनिर्वचनीय आनन्द देनेवाला (वचः) = स्तुतिवचन (उच्यते) = हमारे द्वारा उच्चारित किया जाता है । यह स्तुतिवचन (रुद्राय वर्धनम्) = ज्ञानदाता प्रभु के गुणों का वर्धन करनेवाला है । प्रभु के गुणों का प्रकाश करता हुआ यह वचन हमारे जीवनों के उत्थान का भी कारण होता है । २. हे (अमृत) = हे अविनाशी प्रभो ! (नः) = हमारे लिए (मतभोजनम्) = मनुष्य का पालन करनेवाला भोजन (रास्व) = दीजिए । हमें उतना धन प्राप्त कराइए जितना कि इस मर्त शरीर के पालन के लिए आवश्यक हो । इस प्रकार पोषण के लिए पर्याप्त धन देकर (त्मने) = हमारे लिए (तोकाय) = हमारे पुत्रों के लिए तथा (तनयाय) = हमारे पौत्रों के लिए (मृड) = सुख कीजिए । निर्धनता ही संसार में कष्ट का कारण बनती है । निर्धनता को दूर करके आप हमारे कष्टों को दूर कीजिए । धन से ही सन्तानों का पालन - पोषण व शिक्षण होगा और इस प्रकार उनका जीवन सुखी बनेगा ।
भावार्थ
भावार्थ - हम प्रभु के लिए स्तुतिवचनों का उच्चारण करें और प्रभु से पालन - पोषण के लिए पर्याप्त धन प्राप्त करें ।
विषय
सेनापति का वर्णन ।
भावार्थ
( पित्रे वचः यथा वर्धनम् ) पिता का आशीर्वचन जिस प्रकार पुत्रों को बढ़ाने हारा होता है उसी प्रकार हे ( अमृत ) मरणादि क्लेश से रहित ज्ञानवन् ! विद्वन् ! (पित्रे ) पालक ( रुद्राय ) ज्ञानोपदेष्टा गुरु का ( इदं वचः ) यह वचन, उपदेश ( मरुतां वर्धनम् ) वीर, वायु के समान बलवान् आलस्य रहित शिष्यों को बढ़ाने वाला ( उच्यते ) कहा जाता है । हे विद्वन् ! ( नः त्मने ) हमारे अपने देह, ( तोकाय ) पुत्र और ( तनयाय ) पौत्र आदि के सुख के लिये ( स्वादोः स्वादीयः ) स्वादु से भी स्वादु, आनन्दप्रद ( मर्त्तभोजनं रास्व ) मनुष्यों के भोगने योग्य ऐश्वर्य प्रदान कर और ( नः मृड ) हमें सुखी कर ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
कुत्स आङ्गिरस ऋषिः॥ रुद्रो देवता॥ छन्दः- १ जगती । २, ७ निचृज्जगती । ३, ६, ८, ९ विराड् जगती च । १०, ४, ५, ११ भुरिक् त्रिष्टुप् निचृत् त्रिष्टुप् ॥ एकादशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
वैद्य व उपदेशक यांनी स्वतः निरोगी व सत्याचरणी राहून सर्व माणसांना औषधी द्यावी व उपदेश करून सर्वांचे निरंतर रक्षण करावे. ॥ ६ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
This exhilarating song of homage, holiest of holies, is offered in honour of Rudra, father and protector of the Maruts, heroes of the nation. Lord of immortality, give us the best nourishing food for the mortals, sweetest of sweets, for our body, mind and soul, for our children and for our youth. Lord, be kind and gracious to bless us.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
How should Vaidyas and preachers behave is taught in the 6th Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O Learned Vaidya or preacher, remover of the fear of death, grant us food, good for mortals which is the sweetest of the sweet, grant it to our sons. (Both grown up and in faints) Bestow happiness upon us by words of praise addressed by you to Rudra (President of the Assembly) which are increasers of the joy of the priests, performing Yajna in every season.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(मरुताम्) ऋतौ ऋतौ यजतां विदुषाम् = Of the priests performing Yajna in every season. (रुद्राय) सभाध्यक्षाय = For the President of the Assembly. (तोकाय) ह्रस्वाय बालकाय = Infant child (तनयाय) यूने पुत्राय = For a grown up son.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
It is the duty of a Vaidya and preacher to be free from diseases and benefit all men By giving them proper medicines and sermons and thus to protect them.
Translator's Notes
मरुत इति ऋत्विङ् नाम (निघ० ३.१८) = Priests. तनंय इत्यपत्यनाम (निघ० २. २) = Grown up son. तोकाय-हस्वाय बालकाय = For a small child. तोकमित्यपत्यनाम (निघ० २.२ )
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