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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 12 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 12/ मन्त्र 11
    ऋषिः - मेधातिथिः काण्वः देवता - अग्निः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    स नः॒ स्तवा॑न॒ आ भ॑र गाय॒त्रेण॒ नवी॑यसा। र॒यिं वी॒रव॑ती॒मिष॑म्॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सः । नः॒ । स्तवा॑नः । आ । भ॒र॒ । गाय॒त्रेण॑ । नवी॑यसा । र॒यिम् । वी॒रऽव॑तीम् । इष॑म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स नः स्तवान आ भर गायत्रेण नवीयसा। रयिं वीरवतीमिषम्॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सः। नः। स्तवानः। आ। भर। गायत्रेण। नवीयसा। रयिम्। वीरऽवतीम्। इषम्॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 12; मन्त्र » 11
    अष्टक » 1; अध्याय » 1; वर्ग » 23; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनरेतावुपदिश्येते।

    अन्वयः

    हे भगवन् ! स त्वं नवीयसा गायत्रेण स्तवानः सन् नो रयिं वीरवतीमिषं चाभरेत्येकः। स भौतिकोऽग्निर्नवीयसा गायत्रेणास्माभिः स्तवानो गृहीतगुणो रयिं वीरवतीमिषं चाभरतीति द्वितीयः॥११॥

    पदार्थः

    (सः) पूर्वोक्तः (नः) अस्मभ्यम् (स्तवानः) स्तूयमानः गृहीतगुणो वा। अत्र सम्यानच् स्तुवः। (उणा०२.८६) इति बाहुलकात्समुपपदाभावेऽपि कर्मण्यौणादिक आनच् प्रत्ययः। अत्र सायणाचार्येण लटः स्थाने शानचमाश्रित्य स्तूयमानमिति व्याख्यानं कृतमत इदमशुद्धम्। (आ) समन्तात् (भर) धारय धारयति वा (गायत्रेण) गायत्री छन्द आदिर्यस्य प्रगाथस्य तेन। सोऽस्यादिरिति च्छन्दसः प्रगाथेषु। (अष्टा०४.२.५५) इति गायत्रीशब्दादण्। (नवीयसा) अतिशयितेन नवीनेन मन्त्रपाठगानयुक्तेन स्तवनेन (रयिम्) विद्याचक्रवर्त्तिराज्यजन्यं धनम् (वीरवतीम्) प्रशस्ता वीरा विद्यन्ते यस्याः ताम्। अत्र प्रशंसायां मतुप्। (इषम्) इष्यते या सत्क्रिया ताम्। अत्र कृतो बहुलमिति कर्मणि क्विप्॥११॥

    भावार्थः

    अत्र श्लेषालङ्कारः। पूर्वस्मान्मन्त्राच्चकारोऽनुकृष्यते। तथा प्रतिजनं नवीनं नवीनं वेदाध्ययनं तज्जन्योच्चारणक्रिया च प्रवर्त्तते तस्मान्नवीयसेत्युक्तम्। यैर्धर्मात्मभिर्मनुष्यैर्यथावच्छब्दार्थसम्बन्धपुरःसरेण वेदस्याध्ययेन तदुक्तकर्मणा च प्रीतः सम्पादितो जगदीश्वर उत्तमानि विद्यादिधनानि शूरत्वादिगुणान् सतीमिच्छां च ददाति॥११॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर भी अगले मन्त्र में उन्हीं देवों का उपदेश किया है-

    पदार्थ

    हे भगवन् ! (सः) जगदीश्वर आप ! (नवीयसा) अच्छी प्रकार मन्त्रों के नवीन पाठ गानयुक्त (गायत्रेण) छन्दवाले प्रगाथों से (स्तवानः) स्तुति को प्राप्त किये हुए (नः) हमारे लिये (रयिम्) विद्या और चक्रवर्त्ति राज्य से उत्पन्न होनेवाले धन तथा जिसमें (वीरवतीम्) अच्छे-अच्छे वीर तथा विद्वान् हों, उस (इषम्) सज्जनों के इच्छा करने योग्य उत्तम क्रिया का (आभर) अच्छी प्रकार धारण कीजिये॥१॥११॥(सः) उक्त भौतिक अग्नि (नवीयसा) अच्छी प्रकार मन्त्रों के नवीन-नवीन पाठ तथा गानयुक्त स्तुति और (गायत्रेण) गायत्री छन्दवाले प्रगाथों से (स्तवानः) गुणों के साथ ग्रहण किया हुआ (रयिम्) उक्त प्रकार का धन (च) और (वीरवतीम् इषम्) उक्त गुणवाली उत्तम क्रिया को (आभर) अच्छी प्रकार धारण करता है॥२॥११॥(सः) उक्त भौतिक अग्नि (नवीयसा) अच्छी प्रकार मन्त्रों के नवीन-नवीन पाठ तथा गानयुक्त स्तुति और (गायत्रेण) गायत्री छन्दवाले प्रगाथों से (स्तवानः) गुणों के साथ ग्रहण किया हुआ (रयिम्) उक्त प्रकार का धन (च) और (वीरवतीम् इषम्) उक्त गुणवाली उत्तम क्रिया को (आभर) अच्छी प्रकार धारण करता है॥२॥११॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। तथा पहिले मन्त्र से चकार की अनुवत्ति की है। हर एक मनुष्य को वेद आदि के नवीन-नवीन अध्ययन से वेद की उच्चारणक्रिया प्राप्त होती है, इस कारण नवीयसा इस पद का उच्चारण किया है। जिन धर्मात्मा मनुष्यों ने यथावत् शब्दार्थपूर्वक वेद के पढ़ने और वेदोक्त कर्मों के अनुष्ठान से जगदीश्वर को प्रसन्न किया है, उन मनुष्यों को वह उत्तम-उत्तम विद्या आदि धन तथा शूरता आदि गुणों को उत्पन्न करनेवाली श्रेष्ठ कामना को देता है, क्योंकि जो वेद के पढ़ने और परमेश्वर के सेवन से युक्त मनुष्य हैं, वे अनेक सुखों का प्रकाश करते हैं॥११॥

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    विषय

    फिर भी इस मन्त्र में उन्हीं देवों का उपदेश किया है।

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    (प्रथमः)- हे भगवन् ! स त्वं नवीयसा गायत्रेण स्तवानः सन् नः रयिम् वीरवतीम् इषम् च आभरति ॥११॥


    (द्वितीयः)-  स भौतिको अग्निः नवीयसा गायत्रेण अस्माभिः स्तवानः गृहीतगुणः रयिं वीरवतीम् इषम् च  आभरति ॥११॥

    पदार्थ

    (प्रथम)- हे (भगवन्)=भगवन्, (स) पूर्वोक्त (त्वम्)=आप, (नवीयसा) अतिशयितेन नवीनेन मन्त्रपाठगानयुक्तेन स्तवनेन=अच्छी प्रकार मन्त्रों के नवीन पाठ गानयुक्त (गायत्रेण) गायत्री छन्द आदिर्यस्य प्रगाथस्य तेन= छन्दवाले प्रगाथों से, (अस्माभिः)=हमारे द्वारा,  (स्तवानः+सन्) स्तूयमानः गृहीतगृणो वा=स्तुति को गृहण करते हुए,  (नः)=हमारे लिये, (रयिम्)=धन को, (वीरवतीम्) प्रसस्ता वीरा विद्यन्ते यस्याः ताम्=जिसमें प्रशंसा युक्त वीर विद्यमान हों वह, (इषम्)=इष्यते या सत्क्रिया ताम्=इच्छा किये जाने योग्य उत्तम क्रिया, (आभरति)=अच्छी तरह धारण करता है ॥११॥ 
    (द्वितीय)- (स)=सूर्य्य, (भौतिकः अग्निः)=भौतिक अग्नि, (नवीयसा) अतिशयितेन नवीनेन मन्त्रपाठगानयुक्तेन स्तवनेन=अच्छी प्रकार मन्त्रों के नवीन पाठ गानयुक्त, (गायत्रेण) गायत्री छन्द आदिर्यस्य प्रगाथस्य तेन = छन्दवाले प्रगाथों से, (अस्मभिः)=हमारे द्वारा, (स्तवानः) स्तूमयमानः गृहीतगृणो वा=स्तुति को गृहण किये हुए, गृहीतगृणो वा=स्तुति को गृहण किये हुए, (रयीम्)=धन को, (वीरवतीम्) प्रशस्ता वीरा विद्यन्ते यस्याः ताम्=जिसमें प्रशंसा युक्त वीर विद्यमान हों वह, (इषम्)=इष्यते या सत्क्रिया ताम्=इच्छा किये जाने योग्य उत्तम क्रिया, (च)=और, (आभरति)=अच्छी तरह धारण करता है॥११॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    इस मन्त्र में श्लेष अलङ्कार है और पहिले मन्त्र से चकार की अनुवृत्ति हुई है। हर एक मनुष्य को वेद आदि के नवीन-नवीन अध्ययन से वेद की उच्चारण क्रिया प्राप्त होती है, इस कारण अत्यन्त बाद में इस पद का उच्चारण किया है। जिन धर्मात्मा मनुष्यों ने यथावत् शब्दार्थपूर्वक वेद के पढ़ने और वेदोक्त कर्मों के अनुष्ठान से जगदीश्वर को प्रसन्न किया है, उन मनुष्यों को वह उत्तम-उत्तम विद्या आदि धन तथा शूरता आदि गुणों को उत्पन्न करनेवाली श्रेष्ठ कामना को देता है, क्योंकि जो वेद के पढ़ने और परमेश्वर के सेवन से युक्त मनुष्य हैं, वे अनेक सुखों का प्रकाश करते हैं॥११॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    प्रथम अर्थ भौतिक परमेश्वर के पक्ष में-
     हे (भगवन्) भगवन्! (त्वम्) आप, (नवीयसा) मन्त्र पाठ के गान से युक्त अत्यन्त नवीन प्रशंसा वाली, (स्तवानः+सन्) स्तुति को गृहण करते हुए  (नः) हमारे (रयिम्) धन को (वीरवतीम्) जिसमें प्रशंसा युक्त वीर विद्यमान हों, वह (इषम्) इच्छा किये जाने योग्य उत्तम क्रिया (आभरति) अच्छी तरह धारण करता है॥११॥
    द्वितीय अर्थ भौतिक अग्नि के पक्ष में-  
     (स-भौतिक+अग्निः) भौतिक अग्निः (नवीयसा-गायत्रेण)  मन्त्रपाठ के गान से युक्त  अत्यन्त नवीन प्रशंसा वाले गायन, (अस्माभिः) हमारे द्वारा (स्तवानः-गृहीतगृणाः) की गई स्तुति ग्रहण किये हुए (रयीम्) धन को (वीरवतीम्)  जिसमें प्रशंसा युक्त वीर विद्यमान हों, [और] (इषम्) इच्छा किये जाने योग्य उत्तम क्रिया को (च) भी (आभरति) अच्छी तरह धारण करता है ॥११॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (सः) पूर्वोक्तः (नः) अस्मभ्यम् (स्तवानः) स्तूयमानः गृहीतगुणो वा। अत्र सम्यानच् स्तुवः। (उणा०२.८६) इति बाहुलकात्समुपपदाभावेऽपि कर्मण्यौणादिक आनच् प्रत्ययः। अत्र सायणाचार्येण लटः स्थाने शानचमाश्रित्य स्तूयमानमिति व्याख्यानं कृतमत इदमशुद्धम्। (आ) समन्तात् (भर) धारय धारयति वा (गायत्रेण) गायत्री छन्द आदिर्यस्य प्रगाथस्य तेन। सोऽस्यादिरिति च्छन्दसः प्रगाथेषु। (अष्टा०४.२.५५) इति गायत्रीशब्दादण्। (नवीयसा) अतिशयितेन नवीनेन मन्त्रपाठगानयुक्तेन स्तवनेन (रयिम्) विद्याचक्रवर्त्तिराज्यजन्यं धनम् (वीरवतीम्) प्रशस्ता वीरा विद्यन्ते यस्याः ताम्। अत्र प्रशंसायां मतुप्। (इषम्) इष्यते या सत्क्रिया ताम्। अत्र कृतो बहुलमिति कर्मणि क्विप्॥११॥
    विषयः- पुनरेतावुपदिश्येते।

    अन्वयः- हे भगवन् ! स त्वं नवीयसा गायत्रेण स्तवानः सन् नो रयिं वीरवतीमिषं चाभरेत्येकः। स भौतिकोऽग्निर्नवीयसा गायत्रेणास्माभिः स्तवानो गृहीतगुणो रयिं वीरवतीमिषं चाभरतीति ॥११॥
      
    भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्र श्लेषालङ्कारः। पूर्वस्मान्मन्त्राच्चकारोऽनुकृष्यते। तथा प्रतिजनं नवीनं नवीनं वेदाध्ययनं तज्जन्योच्चारणक्रिया च प्रवर्त्तते तस्मान्नवीयसेत्युक्तम्। यैर्धर्मात्मभिर्मनुष्यैर्यथावच्छब्दार्थसम्बन्धपुरःसरेण वेदस्याध्ययेन तदुक्तकर्मणा च प्रीतः सम्पादितो जगदीश्वर उत्तमानि विद्यादिधनानि शूरत्वादिगुणान् सतीमिच्छां च ददाति॥११॥

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    विषय

    रयि - वीर्य - इष

    पदार्थ

    १. गतमन्त्र के अनुसार जब हमारे जीवन में "दिव्यता  , यज्ञ व हवि" को स्थान मिलता है तब हम सचमुच अपने जीवन [गयाः - प्राणों] का उत्तम त्राण [त्र - रक्षा] व रक्षण करते हैं । इस प्राणशक्ति का रक्षण जीवन में प्रभु का उत्कृष्ट स्तवन होता है । हम प्रभु से दिये गये इस शरीर का रक्षण करते हुए प्रभु का ही आदर कर रहे होते हैं । प्रभु की वस्तु का रक्षण प्रभु का सच्चा स्तवन है  , अतः कहते हैं कि (नवीयसा) - [नु स्तुतौ] स्तुत्यतर इस (गायत्रेण) - प्राणों के रक्षण से (स्तवानः) - स्तुति किये जाते हुए (सः) - वे आप (नः) - हमारे लिए (रयिम्) - धनों को (आभर) - सब प्रकार से भरनेवाले होइए तथा (वीरवतीम्) - वीरतावाले (इषम्) - अन्न को भी (आभर) - सब प्रकार से दीजिए । अथवा (वीरवती) - वीर्य व शक्ति से युक्त (रयिम्) - धन को दीजिए और साथ ही (इषम्) - प्रेरणा प्राप्त कराइए  , ताकि हम उस शक्ति व धन का सदा ठीक से प्रयोग करें  , मद में आकर शक्ति व धन का दुरुपयोग न कर बैठें । 

    २. यहाँ मन्त्रार्थ से यह बात स्पष्ट है कि प्रभु का उत्कृष्ट स्तवन यही है कि हम प्रभु के दिये हुए शरीर को प्राणशक्ति के रक्षण के द्वारा सुरक्षित रखें । इसके सुरक्षण के लिए ही मन्त्र में "धन  , वीर्य व उत्तम अन्न अथवा उत्तम प्रेरणा" के लिए प्रार्थना की गई है । 

     

     

    भावार्थ

    भावार्थ - शरीर की प्राणशक्ति का रक्षण करते हुए हम प्रभु का सुन्दर स्तवन करें  , प्रभु हमें धन  , वीर्य व इष - अन्न व प्रेरणा प्राप्त कराएँ । 

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    विषय

    पक्षान्तर में सूर्य, अग्नि, तेजस्वी पुरुष, राजा आदि का वर्णन ।

    भावार्थ

    हे परमेश्वर ! राजन् ! ( सः ) वह तु ( नवीयसा ) अति नवीन, सदा स्तुति योग्य, ( गायत्रेण ) गायत्री छन्द से युक्त प्रगाथ से ( स्तवानः ) स्तुति किया जाकर ( नः ) हमें ( वीरवतीम् ) वीर पुरुषों से युक्त ( इषम् ) सेना, अभिलषित अन्न और सत्कार और ( रयिम् ) ऐश्वर्य ( आ भर ) प्राप्त करा । राजा के पक्ष में—(गायत्रेण ) इस भूलोक वासी प्रजाजनों द्वारा स्तुति किया जाकर वीरों से युक्त सेना और ऐश्वर्य को प्राप्त कर ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    मेधातिथिः काण्व ऋषिः । अग्निर्देवता । गायत्री । द्वादशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात श्लेषालंकार आहे. पहिल्या मंत्रातील ‘चकार’ची अनुवृत्ती झालेली आहे. प्रत्येक माणसाला वेद इत्यादीच्या नवनवीन अध्ययनाने वेदाची उच्चारणक्रिया कळते. याच कारणाने ‘नवीयसा’ या पदाचे उच्चारण केलेले आहे.

    टिप्पणी

    ज्या धर्मात्मा माणसांनी यथायोग्य शब्दार्थासह वेदाध्ययन व वेदोक्त कर्माच्या अनुष्ठानाने जगदीश्वराला प्रसन्न केलेले आहे, त्या माणसांना तो उत्तम विद्या इत्यादी धन व शौर्य इत्यादी गुण उत्पन्न करणारी श्रेष्ठ कामना देतो. कारण जे वेदाध्ययन करून परमेश्वराचे भाजन बनतात त्यांना अनेक प्रकारचे सुख मिळते. ॥ ११ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    May Agni, omnipresent and self-refulgent Lord, adored again and ever again with Gayatri hymns and new versions of prayer, bless us with wealth, food and energy and heroic progeny.

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    Subject of the mantra

    Yet in this mantra the same deities have been preached.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    First in favour of God- He=O! (bhagavan)=God, (tvam)=you, (navīyasā)=chanted with mantras and highly praised, (stavānaḥ+san)=receiving praise, (naḥ)=our, (rayim)=wealth, (vīravatīm)=who is having presence of braves, [vaha]=that, (naḥ)=our, (iṣam)=excellent deed, which one desires, (rayim)=wealth, (ābharati)=holds it properly. Second in favour of physical fire- (sa-bhautika+agniḥ)=The physical fire, (navīyasā-gāyatreṇa)=chanted with mantras and highly praised, (asmābhiḥ)=by us, (stavānaḥ-gṛhītagṛṇāḥ)=having praise through Veda mantras, (rayīm)=wealth, (vīravatīm)=who is having presence of braves, (iṣam)=excellent deed, [aura]=and, (ca)=Also, (ābharati)=is holding it properly.

    English Translation (K.K.V.)

    First in favour of God- O God! You, while receiving a very new praise consisting of chanting of mantras, our wealth in which admiring heroes are present, he holds properly excellent deeds which are capable of having such desire. Second in favour of physical fire- Fire, chanted with mantras and highly praised by us, having praised through mantras of Vedas, accepted wealth, having presence of braves and desires of excellent deeds is also holding it properly.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    In this mantra, there is paronomasia as a figurative and the alphabet “ca” (च) gets repeated from the previous mantra [“ca” signifies that some part of the mantra is being repeated in this mantra as well]. Every human being receives the pronunciation of Vedas from the new study of Vedas etc. That is why this term has been pronounced much later. To those human beings, He bestows the best of knowledge, etc., to the noble desire that produces virtues such as wealth and bravery, etc. Because those who are human beings with the study of the Vedas and the service of the God. They manifest many pleasures.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The same subject is continued.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    (1) Praised by our most admirable hymn O God, bestow upon us wealth got as a result of knowledge and good vast administration and good actions along with heroic progeny. (2)In the case of fire- The fire praised by us (by relating its properties and being utilized properly) produces wealth accompanied with heroic progeny and noble actions.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (इषम् ) इष्यते या सक्रिया ताम् अत्र कृतो बहुलम् इति कर्मणि क्विप् ।

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    In this Mantra also, there is Shleshalankar or double meaning. The word नवियता has been used here to show that the study of the Vedas is new to every individual and as consequence its pronunciation becomes some what new. When God is pleased by righteous persons through the proper and methodical study of the Vedas and the performance of the actions sanctioned by them, He grants them wealth in the form of knowledge, heroism and other virtues and noble desires.

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