ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 12/ मन्त्र 8
यस्त्वाम॑ग्ने ह॒विष्प॑तिर्दू॒तं दे॑व सप॒र्यति॑। तस्य॑ स्म प्रावि॒ता भ॑व॥
स्वर सहित पद पाठयः । त्वाम् । अ॒ग्ने॒ । ह॒विःऽप॑तिः । दू॒तम् । दे॒व॒ । स॒प॒र्यति॑ । तस्य॑ । स्म॒ । प्र॒ऽअ॒वि॒ता । भ॒व॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
यस्त्वामग्ने हविष्पतिर्दूतं देव सपर्यति। तस्य स्म प्राविता भव॥
स्वर रहित पद पाठयः। त्वाम्। अग्ने। हविःऽपतिः। दूतम्। देव। सपर्यति। तस्य। स्म। प्रऽअविता। भव॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 12; मन्त्र » 8
अष्टक » 1; अध्याय » 1; वर्ग » 23; मन्त्र » 2
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अष्टक » 1; अध्याय » 1; वर्ग » 23; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तावेवोपदिश्येते।
अन्वयः
हे देवाग्ने ! यो हविष्पतिर्मनुष्यो दूतं त्वां सपर्य्यति तस्य त्वं प्राविता भव स्मेत्येकोऽन्वयः। यो हविष्पतिर्मनुष्यस्त्वां तं देवं दूतमग्निं सपर्य्यति तस्यायं प्राविता भवति स्म (इति द्वितीयः)॥८॥
पदार्थः
(यः) मनुष्यः (त्वाम्) तं वा (अग्ने) विज्ञानस्वरूप ! अग्निर्वा। अत्र सर्वत्रार्थाद्विभक्तेर्विपरिणाम इति परिभाषया साधुत्वं विज्ञेयम्। (हविष्पतिः) हविषां दातुं ग्रहीतुं योग्यानां द्रव्याणां गुणानां वा पतिः पालकः कर्मानुष्ठाता (दूतम्) दवति प्रापयति सुखज्ञाने येन तम् (देव) सर्वप्रकाशकेश्वर ! प्रकाशदाहयुक्तमग्निं वा (सपर्य्यति) सेवते। सपर्य्यतीति परिचरणकर्मसु पठितम्। (निघं०३.५) (तस्य) सेवकस्य (स्म) स्पष्टार्थे (प्राविता) प्रकृष्टतया ज्ञाता सुखप्रापको वा (भव) भवति वा॥८॥
भावार्थः
अत्र श्लेषालङ्कारः। दूतशब्देन ज्ञानप्रापकत्वमीश्वरे देशान्तरे द्रव्ययानप्रापणं च भौतिके मत्वाऽस्य प्रयोगः कृतोऽस्ति। ये मनुष्या आस्तिका भूत्वा हृदये सर्वसाक्षिणं परमेश्वरं ध्यायन्ति त एवेश्वरेण रक्षिताः पापानि त्यक्त्वा धर्मात्मानः सन्तः सुखं प्राप्नुवन्ति। ये युक्त्या यानयन्त्रादिष्वग्निं प्रयुञ्जते तेऽपि युद्धादिषु कार्य्येषु रक्षिता रक्षकाश्च भवन्तीति॥८॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर भी अगले मन्त्र में ईश्वर और भौतिक अग्नि का उपदेश किया है-
पदार्थ
हे (देव) सब के प्रकाश करनेवाले (अग्ने) विज्ञानस्वरूप जगदीश्वर ! (यः) जो (हविष्पतिः) देने-लेने योग्य वस्तुओं का पालन करनेवाला मनुष्य (दूतम्) ज्ञान देनेवाले आपका (सपर्य्यति) सेवन करता है, (तस्य) उस सेवक मनुष्य के आप (प्राविता) अच्छी प्रकार जाननेवाले (भव) हों॥१॥८॥(यः) जो (हविष्पतिः) देने-लेने योग्य पदार्थों की रक्षा करनेवाला मनुष्य (देव) प्रकाश और दाहगुणवाले (अग्ने) भौतिक अग्नि का (सपर्य्यति) सेवन करता है, (तस्य) उस मनुष्य का वह अग्नि (प्राविता) नाना प्रकार के सुखों से रक्षा करनेवाला (भव) होता है॥२॥८॥
भावार्थ
इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। दूत शब्द का अर्थ दो पक्ष में समझना चाहिये अर्थात् एक इस प्रकार से कि सब मनुष्यों में ज्ञान का पहुँचाना ईश्वर पक्ष में, तथा एकदेश से दूसरे देश में पदार्थों का पहुँचाना भौतिक पक्ष में ग्रहण किया गया है। जो आस्तिक अर्थात् परमेश्वर में विश्वास रखनेवाले मनुष्य अपने हृदय में सर्वसाक्षी का ध्यान करते हैं, वे पुरुष ईश्वर से रक्षा को प्राप्त होकर पापों से बचकर धर्मात्मा हुए अत्यन्त सुख को प्राप्त होते हैं, तथा जो युक्ति से विमान आदि रथों में भौतिक अग्नि को संयुक्त करते हैं, वे भी युद्धादिकों में रक्षा को प्राप्त होकर औरों की रक्षा करनेवाले होते हैं॥८॥
विषय
फिर भी इस मन्त्र में ईश्वर और भौतिक अग्नि का उपदेश किया है।
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
(प्रथमः)- हे देव अग्ने ! यः हविष्पतिः मनुष्यः दूतम् त्वां सपर्य्यति तस्य त्वं प्राविता भव स्म इति एको अन्वयः ॥८॥
(द्वितीयः)- यः हविष्पतिः मनुष्यः त्वां तं देवं दूतम् अग्निम् सपर्य्यति तस्यायं प्राविता भवति स्म ॥८॥
पदार्थ
(प्रथम)- हे (देव) दिव्य-गुण-कर्म-स्वभावः=दिव्य-गुण-कर्म-स्वभाव वाले, (अग्ने)=परमेश्वर या भौतिक अग्नि, (यः)=जो (मनुष्यः)=मनुष्य, (हविष्पतिः) हविषां दातुं ग्रहीतुं योग्यानां द्रव्याणां गुणानां वा पतिः पालकः कर्मानुष्ठाता=हवि में देने व लेने योग्य पदार्थों के गुणों का, (दूतम्) दवति प्रापयति सुखज्ञाने येन तम्=जिसके द्वारा ज्ञान का सुख प्राप्त होता है, वह (सपर्य्यति) सेवते=सेवन करता है, (तस्य)=उसका, (त्वम्) तुम (प्राविता) अच्छी तरह जानने वाले या सुख प्राप्त करने वाले (स्म) थे और (भव) अब भी ऐसा हो।॥८॥
पदार्थ(द्वितीय)- (यो)=जो, (हविष्पतिः) हविषां दातुं ग्रहीतुं योग्यानां द्रव्याणां गुणानां वा पतिः पालकः कर्मानुष्ठाता=स्वामी, पालक और कर्मों का अनुष्ठाता, (मनुष्यः)=मनुष्य, (त्वाम्)=तुमको, (तम्)=उस, (देवम्)=देवता को, (दूतम्) दवति प्रापयति सुखज्ञाने येन तम्=जिसके द्वारा ज्ञान का सुख प्राप्त होता है, (अग्निम्)=अग्नि को, (सपर्य्यति) सेवते=सेवन करता है, (तस्य) उसका, (अयम्)=यह, (भवति+स्म)=होता था॥८॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
इस मन्त्र में श्लेष अलङ्कार है। दूत शब्द का अर्थ दो पक्ष में समझना चाहिये अर्थात् एक इस प्रकार से कि सब मनुष्यों में ज्ञान का पहुँचाना- ईश्वर पक्ष में, तथा भौतिक पक्ष में- एकदेश से दूसरे देश में पदार्थों का पहुँचाना ग्रहण किया गया है। जो आस्तिक अर्थात् परमेश्वर में विश्वास रखनेवाले मनुष्य अपने हृदय में सर्वसाक्षी का ध्यान करते हैं, वे पुरुष ईश्वर से रक्षा को प्राप्त होकर पापों से बचकर धर्मात्मा होकर अत्यन्त सुख को प्राप्त होते हैं, तथा जो युक्ति से विमान आदि रथों में भौतिक अग्नि को संयुक्त करते हैं, वे भी युद्ध आदि में रक्षा को प्राप्त होकर अन्यों की रक्षा करनेवाले होते हैं ॥८॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
(प्रथम)- हे (देव) दिव्य गुण,कर्म और स्वभाव वाले (अग्ने) परमेश्वर या भौतिक अग्नि! (यः) जो (मनुष्यः) मनुष्य (हविष्पतिः) हवि में देने व लेने योग्य पदार्थों के गुणों का सेवन करता है और (दूतम्) जिसके द्वारा ज्ञान का सुख प्राप्त होता है (तस्य) उसको (त्वम्) तुम (प्राविता) अच्छी तरह जानने वाले या सुख प्राप्त करने वाले (स्म) थे और (भव) अब भी ऐसा हो।॥८॥
(द्वितीय)- (यो) जो (हविष्पतिः) स्वामी, पालक और कर्मों का अनुष्ठाता (मनुष्यः) मनुष्य है, (त्वाम्) तुम (तम्) उस (अग्निम्) अग्नि (देवम्) देवता का (दूतम्) जिसके द्वारा ज्ञान का सुख प्राप्त (भवति+स्म) होता था। (सपर्य्यति) तुम उसका सेवन करो॥८॥
संस्कृत भाग
पदार्थः(महर्षिकृतः)- (यः) मनुष्यः (त्वाम्) तं वा (अग्ने) विज्ञानस्वरूप ! अग्निर्वा। अत्र सर्वत्रार्थाद्विभक्तेर्विपरिणाम इति परिभाषया साधुत्वं विज्ञेयम्। (हविष्पतिः) हविषां दातुं ग्रहीतुं योग्यानां द्रव्याणां गुणानां वा पतिः पालकः कर्मानुष्ठाता (दूतम्) दवति प्रापयति सुखज्ञाने येन तम् (देव) सर्वप्रकाशकेश्वर ! प्रकाशदाहयुक्तमग्निं वा (सपर्य्यति) सेवते। सपर्य्यतीति परिचरणकर्मसु पठितम्। (निघं०३.५) (तस्य) सेवकस्य (स्म) स्पष्टार्थे (प्राविता) प्रकृष्टतया ज्ञाता सुखप्रापको वा (भव) भवति वा॥८॥
विषयः- पुनस्तावेवोपदिश्येते।
अन्वयः- हे देवाग्ने ! यो हविष्पतिर्मनुष्यो दूतं त्वां सपर्य्यति तस्य त्वं प्राविता भव स्मेत्येकोऽन्वयः। यो हविष्पतिर्मनुष्यस्त्वां तं देवं दूतमग्निं सपर्य्यति तस्यायं प्राविता भवति स्म (इति द्वितीयः)॥८॥
भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्र श्लेषालङ्कारः। दूतशब्देन ज्ञानप्रापकत्वमीश्वरे देशान्तरे द्रव्ययानप्रापणं च भौतिके मत्वाऽस्य प्रयोगः कृतोऽस्ति। ये मनुष्या आस्तिका भूत्वा हृदये सर्वसाक्षिणं परमेश्वरं ध्यायन्ति त एवेश्वरेण रक्षिताः पापानि त्यक्त्वा धर्मात्मानः सन्तः सुखं प्राप्नुवन्ति। ये युक्त्या यानयन्त्रादिष्वग्निं प्रयुञ्जते तेऽपि युद्धादिषु कार्य्येषु रक्षिता रक्षकाश्च भवन्तीति॥८॥
विषय
हविष्पति बनना
पदार्थ
१. हे (अग्ने) - अग्रणी प्रभो ! (यः) - जो भी (हविष्पतिः) - दानपूर्वक अदन के द्वारा , यज्ञशेष के सेवन द्वारा (दूतम्) - भक्तों को तप की अग्नि में सन्तप्त करनेवाले हे देव - सब - कुछ देनेवाले , ज्ञानाग्नि से दीप्त , ज्ञान से औरों को द्योतित करनेवाले प्रभो ! जो (त्वाम्) - आपको (सपर्यति) - पूजता है , (तस्य) - उसके (प्राविता भव) [स्म] - अवश्य रक्षक होइए ।
२. प्रभु 'अग्नि' हैं , सबके अग्रेणी - आगे ले - चलनेवाले हैं । प्रभु 'देव' हैं , सब कुछ दान देनेवाले , स्वयं ज्ञान से दीप्त व औरों को ज्ञान से द्योतित करनेवाले हैं । प्रभु 'दूत' हैं , भक्तों को तप की अग्नि में तपाकर उनके सब दोषों को दूर करनेवाले हैं ।
३. इस प्रभु की उपासना 'हविष्पति' बनने से होती है । (हविषा विधेम) - हवि के द्वारा हम प्रभु का पूजन करें । 'हु दानादनयोः ' दानपूर्वक अदन ही 'हवन' है । दानपूर्वक अदन करनेवाला व्यक्ति 'हविष्पति' है । यज्ञमय जीवन से ही प्रभुपूजन होता है - 'यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवाः प्रभु यज्ञरूप हैं , उस प्रभु की पूजा यज्ञ से ही होती है । यज्ञशेष को खानेवाला 'हविष्पति' है , यही प्रभु की उपासना करता है । प्रभु हमारी रक्षा करेंगे ।
भावार्थ
भावार्थ - हविष्यति बनकर हम प्रभु का उपासन करें , प्रभु हमारी रक्षा करेंगे ।
विषय
पक्षान्तर में सूर्य, अग्नि, तेजस्वी पुरुष, राजा आदि का वर्णन ।
भावार्थ
हे ( अग्ने ) प्रकाशस्वरूप परमेश्वर ! राजन् ! ( यः ) जो ( हविष्पतिः ) दानदेने और ग्रहण करने योग्य, अन्न आदि पदार्थों और उत्तम गुणों का पालक पुरुष, ( दूतम् ) ज्ञान के दाता और शत्रुओं के पीड़क ( त्वाम् ) तुझको ( सपर्यति ) उपासना और सेवा करता है, हे ( देव ) दानशील ! हे द्रष्टः ! तू ( तस्य ) उसका ( प्र अविता ) सबसे बड़ा और सबसे उत्तम रक्षा करनेवाला ( भव ) हो और है । भौतिक पक्ष में—( दूतम् ) देशान्तर में ले जाने वाला तेरी साधना करता है, तू उसका रक्षक और प्रापक होता है ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
मेधातिथिः काण्व ऋषिः । अग्निर्देवता । गायत्री । द्वादशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात श्लेषालंकार आहे. दूत या शब्दाचा अर्थ दोन प्रकारे जाणला पाहिजे. एक अशाप्रकारे की सर्व माणसांमध्ये ज्ञानप्रापकत्व, हा ईश्वरी पक्ष व एका स्थानाहून दुसऱ्या स्थानी पदार्थ पोहोचविणे हा भौतिक पक्ष, असे दोन पक्ष ग्रहण केलेले आहेत. जी आस्तिक अर्थात परमेश्वरावर विश्वास ठेवणारी माणसे आपल्या हृदयात सर्वसाक्षीचे ध्यान करतात त्या पुरुषांचे ईश्वराकडून रक्षण होते व पापापासून बचाव होतो. तसेच ती धर्मात्मा बनून सुखी होतात व जी माणसे युक्तीने विमान इत्यादी रथांमध्ये भौतिक अग्नीला संयुक्त करतात, त्यांचेही युद्धात वगैरे रक्षण होऊन ती इतरांचेही रक्षण करतात. ॥ ८ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
Lord omniscient and resplendent, protector and harbinger of the holy gifts and blessings of life, whosoever be the yajnapati of service with holy offering unto you, save, protect and promote.
Subject of the mantra
Even then by the word ‘Agni’ God and physical fire have been preached in this mantra.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
First in favour of God- He=O! (deva)=having divine virtues, deeds and nature, (agne)=God or physical fire, (yaḥ)=which, (manuṣyaḥ)=man, (haviṣpatiḥ)= uses the qualities of the substances to be given and taken in the havi (sacrificial offerings) and, (dūtam)= by which the pleasure of knowledge is attained, saparyyati=uses or consumes, (tasya)=his, (tvam)=you, (prāvitā+sma)= (prāvitā+sma)=were well acquainted with Him and obtainer of delight , (bhava)= be like that now as well. Second in favour of Sun- (yo)=That, (haviṣpatiḥ)=Lord, protector and performer of deeds, (manuṣyaḥ)=man is, (tvām)=You, (tam)=to that, (agnim)=to physical fire, (devam)=of deity, (dūtam)=through which the pleasure of knowledge was attained, (bhavati+sma)= used to have, (saparyyati)=you use that.
English Translation (K.K.V.)
First in favour of God- O having divine virtues, deeds and nature, God! Man who uses the materials given and taken as offerings in yajan process and through whom delight of knowledge is obtained. You were well acquainted with Him or availed off delights used to happen through Him and so be in future. Second in favour of Sun- That man is lord, protector and performer of deeds. You are the deity of fire, through which the pleasure of knowledge was attained. You use that.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
In this mantra there is a paronomasia as a figurative. The meaning of the word messenger should be understood in two aspects, i.e. one in such a way that the transmission of knowledge to all human beings - on the God side, and in the material side - the transport of goods from one country to another has been assumed. Those believers, that is, those who meditate on the Omniscient in their heart, those men who are protected from God, are saved from sins, become righteous and attain great happiness and those who tactfully combine the material fire in the chariots like aircraft, etc., they also get protection in war etc. They are the ones who protect others.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The same subject is continued in the 8th Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
(1) Taking the word Agni used in the Mantra primarily for God the meaning is-- O Resplendent Omniscient God, who ever institutor of a non-violent sacrifice or preserver of noble virtues, worships Thee-the Herald of noble virtues or true Messenger, the Giver of Wisdom and Happiness, do Thou prove His special Protector. (2) In the case-of the fire the meaning is. The fire becomes the protector of the offeror of oblations or the performer of the Yajna who serves it-the giver of happiness when properly used and which is like a messenger taking the particles of the oblations etc. to distant places.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(सपर्यति) सेवते सपर्यतीति परिचरणकर्मसु (निघ० ३.५ ) (दूतः) दवति प्रापयति सुखज्ञाने येन तम् ।। = Conveyer or giver of happiness and knowledge. (प्राविता ) प्रकृष्टतया ज्ञाता सुखप्रापको वा।
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
There is Shleshalankar (Panorama Sia ) in this Mantra. In this Mantra the word दूत (Doota) has been used, which in the case of God means one Who enables us to attain wisdom. In the case of fire, it means something which takes things and vehicles to distant places. Those persons who being believers in God and the Vedas, meditate on God who is the Supreme Witness of all in their hearts, they alone being protected by God and having given up sins, enjoy happiness, becoming righteous. (2) Those scientists and others who utilize the fire properly in the vehicles and machines etc. are also protected in battle fields, other places and become others' protectors.
Translator's Notes
Among the different 19 meanings of the rootअव अवगम (knowledge ) and attainment have been taken here particularly. Protection is too well-known to be mentioned. (दूत :) The root from which the word Doota is derived is दु-गतौ गतेस्त्रयोऽर्था ज्ञानं गमनं प्राप्तिश्च । Here Rishi Dayananda has taken the third meaning of attainment or taking.
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