ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 152/ मन्त्र 3
ऋषिः - दीर्घतमा औचथ्यः
देवता - मित्रावरुणौ
छन्दः - विराट्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
अ॒पादे॑ति प्रथ॒मा प॒द्वती॑नां॒ कस्तद्वां॑ मित्रावरु॒णा चि॑केत। गर्भो॑ भा॒रं भ॑र॒त्या चि॑दस्य ऋ॒तं पिप॒र्त्यनृ॑तं॒ नि ता॑रीत् ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒पात् । ए॒ति॒ । प्र॒थ॒मा । प॒त्ऽवती॑नाम् । कः । तत् । वा॒म् । मि॒त्रा॒व॒रु॒णा॒ । आ । चि॒के॒त॒ । गर्भः॑ । भा॒रम् । भ॒र॒ति॒ । आ । चि॒त् । अ॒स्य॒ । ऋ॒तम् । पिप॑र्ति । अनृ॑तम् । नि । ता॒रीत् ॥
स्वर रहित मन्त्र
अपादेति प्रथमा पद्वतीनां कस्तद्वां मित्रावरुणा चिकेत। गर्भो भारं भरत्या चिदस्य ऋतं पिपर्त्यनृतं नि तारीत् ॥
स्वर रहित पद पाठअपात्। एति। प्रथमा। पत्ऽवतीनाम्। कः। तत्। वाम्। मित्रावरुणा। आ। चिकेत। गर्भः। भारम्। भरति। आ। चित्। अस्य। ऋतम्। पिपर्ति। अनृतम्। नि। तारीत् ॥ १.१५२.३
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 152; मन्त्र » 3
अष्टक » 2; अध्याय » 2; वर्ग » 22; मन्त्र » 3
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अष्टक » 2; अध्याय » 2; वर्ग » 22; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ।
अन्वयः
हे मित्रावरुणा या पद्वतीनां प्रथमाऽपादेति तत् वां क आ चिकेत यो गर्भो भारमाभरति चिदप्यस्य संसारस्य मध्ये ऋतं पिपर्त्ति सोऽनृतं नितारीत् ॥ ३ ॥
पदार्थः
(अपात्) अविद्यमाना पादा यस्याः सा विद्या (एति) प्राप्नोति (प्रथमा) आदिमा (पद्वतीनाम्) प्रशस्ताः पादा विभागा विद्यन्ते यासां तासाम् (कः) (तत्) ताम् (वाम्) युवाभ्याम् (मित्रावरुणा) सुहृद्वरावध्यापकोपदेशकौ (आ) (चिकेत) जानीयात् (गर्भः) यो गृह्णाति सः (भारम्) पोषम् (भरति) धरति (आ) (चित्) अपि (अस्य) (ऋतम्) सत्यम् (पिपर्त्ति) पूर्णं करोति (अनृतम्) मिथ्याभाषणादिकं कर्म (नि) (तारीत्) उल्लङ्घते ॥ ३ ॥
भावार्थः
येऽनृतं विहाय सत्यं धृत्वा संभारान् सञ्चिन्वन्ति ते सत्यां विद्यां प्राप्नुवन्ति ॥ ३ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ।
पदार्थ
हे (मित्रावरुणा) श्रेष्ठ मित्र पढ़ाने और उपदेश करनेवाले विद्वानो ! जो (पद्वतीनाम्) प्रशंसित विभागोंवाली क्रियाओं में (प्रथमा) प्रथम (अपात्) विना विभागवाली विद्या (एति) प्राप्त होती है (तत्) उसको (वाम्) तुमसे (कः) कौन (आ, चिकेत) जाने और जो (गर्भः) ग्रहण करनेवाला जन (भारम्) पुष्टि को (आ, भरति) सुशोभित करता वा अच्छे प्रकार धारण करता है (चित्) और भी (अस्य) इस संसार के बीच (ऋतम्) सत्य व्यवहार को (पिपर्त्ति) पूर्ण करता है सो (अनृतम्) मिथ्या भाषण आदि काम को (नि, तारीत्) निरन्तर उल्लङ्घता है ॥ ३ ॥
भावार्थ
जो झूठ को छोड़ सत्य को धारण कर अपने सब सामान इकट्ठे करते हैं, वे सत्य विद्या को प्राप्त होते हैं ॥ ३ ॥
विषय
उषा का पाठ
पदार्थ
१. प्राणसाधक पति-पत्नी उषा से भी बोध लेते हैं और क्या देखते हैं कि (अपात्) = बिना पाँववाली होती हुई भी (पद्वतीनाम्) = पाँवोंवाली प्रजाओं में (प्रथमा) = सबसे पहले (एति) = प्राप्त होती है। 'हम सोये ही हुए हैं और यह उषा बिना पाँवोंवाली होती हुई भी आ पहुँची है'- यह देखते ही कौन न उठ बैठेगा! हे (मित्रावरुणा) = पति-पत्नी ! (वाम्) = आपमें से जो भी (तत् चिकेत) = इस बिना पाँववाली उषा के प्रथमागमन का विचार करता है, वह (कः) = आनन्दमय जीवनवाला होता है। प्रातः काल उठ जाने से वह अपनी शक्ति को विनष्ट नहीं होने देता । २. (गर्भः) = [यो गृह्णाति सः - द०] उषा के उपदेश को ग्रहण करनेवाला (चित्) = निश्चय से (भारं आ भरति) = [पोषं पुष्णाति, भृ=पोषणे] शक्तियों का पोषण प्राप्त करता है। यह (उषा अस्य) = इस उपासक के जीवन में (ऋतं पिपर्ति) = ऋत का पूरण करती है और (अनृतम्) = अनृत को (नितारीत्) = नष्ट करती है । 'उष दाहे' धातु से निष्पन्न यह उषा अनृत का दहन करती है। सब बुराइयों का दहन करने से इसे 'उषा' नाम दिया गया है।
भावार्थ
भावार्थ- प्राणसाधना करनेवाले पति-पत्नी उषाकाल में प्रबुद्ध होते हैं, अपने जीवन में शक्ति का पोषण करते हैं और अनृत को नष्ट करके ऋत को धारण करते हैं।
विषय
वेदाभ्यास, ज्ञान प्राप्ति का उपदेश, पति पत्नी के प्रति उत्तम उपदेश ।
भावार्थ
जिस प्रकार ( पद्वतीनां ) पैरों वाले जन्तुओं से सब से प्रथम (अपात्) पादरहित उषा आती है। और ( मित्रावरुणा ) दिन और रात्रि इन दोनों में से उस रहस्य की कोई नहीं जानता और जिस प्रकार (गर्भः ) दोनों को ग्रहण या धारण करने में समर्थ आदित्य ( अस्य ) इस जगत् के ( भारं भरति ) पोषणादि कार्य करता और ( ऋतं ) व्यक्त प्रकाश को पूर्ण करता और ( अनृतं ) असत्य अन्धकार की ( नितारीत् ) दूर कर देता है उसी प्रकार ( पद्धतीनां प्रथमा ) चरण, अध्याय, पाद, सर्ग आदि विभाग वाली वाणी से भी ( प्रथमा ) प्रथम, श्रेष्ठ ( अपात् ) चरणादि से रहित वाणी ( एति ) प्रकट होती है, हे ( मित्रा-वरुणा ) अध्यापक विद्यार्थी आदि जनो ( वां ) आप दोनों में से (कः तत् चिकेत) कौन इस रहस्य को जानता है ? कोई नहीं । तो भी ( गर्भः ) विद्याओं को ग्रहण करने में समर्थ विद्यार्थी जिज्ञासु पुरुष ( अस्य ) इस सन्मुख स्थित आचार्य के (भारं आ भरति) पोषित ज्ञान को सब प्रकार से धारण करता है । वही ( ऋतं पिपर्त्ति ) उसके सुविचारित सत्य ज्ञान को पूर्ण करता और (अनृतं नि तारीत्) अज्ञान अन्धकार और अमृत व्यवहार को दूर करता उससे पार हो जाता है ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
दीर्घतमा ऋषिः ॥ मित्रावरुणौ देवते ॥ छन्दः– १, २, ४, ५, ६ त्रिष्टुप् । ३ विराट् त्रिष्टुप् । ७ निचृत् त्रिष्टुप् ॥ सप्तर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
जे असत्य सोडून सत्य धारण करतात व आपले उद्दिष्ट साध्य करतात, ते सत्यविद्या प्राप्त करतात. ॥ ३ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Just as the dawn arises and radiates over the earth before moving humanity rises and goes out on business, so does the Original Knowledge of Revelation radiate whole before it is analysed into distinctive branches. Which of your scholars, O Mitra and Varuna, powers of vision and wisdom, knows that? Probably the man-treasure of knowledge bears the burden of it, maintains it and feeds it with detailed application and overcomes illusion and confusion.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The description of teachers and preachers.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O friendly and noble teachers and preachers! who is it that gets from you the Vidya (thorough knowledge)? May I take liberty to put a question ? In fact, he is the first among those who has feet or full base of the learning. A student who bears that true knowledge, upholds and fills up the truth n this world. He achieves success and gives up falsehood and other evils.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Those persons acquire true knowledge, who give up untruth, uphold always truth and accumulate together all desirable and requisite articles.
Foot Notes
(अपात्) अविद्यमाना पादा यस्याः सा विद्या = Literally without feet i. e. complete true knowledge with no divisions. पद्धतीनां ( पद्धतीनाम्) येषां पादा: विभागा: सन्ति = Among those who have feet or divisions, (गर्भः) यो गृह्णाति स: - A student who takes or acquires knowledge.
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