ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 152/ मन्त्र 4
ऋषिः - दीर्घतमा औचथ्यः
देवता - मित्रावरुणौ
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
प्र॒यन्त॒मित्परि॑ जा॒रं क॒नीनां॒ पश्या॑मसि॒ नोप॑नि॒पद्य॑मानम्। अन॑वपृग्णा॒ वित॑ता॒ वसा॑नं प्रि॒यं मि॒त्रस्य॒ वरु॑णस्य॒ धाम॑ ॥
स्वर सहित पद पाठप्र॒ऽयन्त॑म् । इत् । परि॑ । जा॒रम् । क॒नीना॑म् । पश्या॑मसि । न । उ॒प॒ऽनि॒पद्य॑मानम् । अन॑वऽपृग्णा । विऽत॑ता । वसा॑नम् । प्रि॒यम् । मि॒त्रस्य॑ । वरु॑णस्य । धाम॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
प्रयन्तमित्परि जारं कनीनां पश्यामसि नोपनिपद्यमानम्। अनवपृग्णा वितता वसानं प्रियं मित्रस्य वरुणस्य धाम ॥
स्वर रहित पद पाठप्रऽयन्तम्। इत्। परि। जारम्। कनीनाम्। पश्यामसि। न। उपऽनिपद्यमानम्। अनवऽपृग्णा। विऽतता। वसानम्। प्रियम्। मित्रस्य। वरुणस्य। धाम ॥ १.१५२.४
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 152; मन्त्र » 4
अष्टक » 2; अध्याय » 2; वर्ग » 22; मन्त्र » 4
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अष्टक » 2; अध्याय » 2; वर्ग » 22; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ।
अन्वयः
हे मनुष्या यथा वयं कनीनां जारं प्रयन्तमुपनिपद्यमानमनवपृग्णा वितता वसानं सूर्यमिव मित्रस्य वरुणस्येत्प्रियं धाम परि पश्यामसि। अस्माद्विरुद्धा न भवेम तथा यूयमप्येतत् प्राप्नुत ॥ ४ ॥
पदार्थः
(प्रयन्तम्) प्रयत्नं कुर्वन्तम् (इत्) एव (परि) (जारम्) वयोहानिकारकम् (कनीनाम्) कामयमानानाम् (पश्यामसि) (न) (उपनिपद्यमानम्) समीपे प्राप्नुवन्तम् (अनवपृग्णा) संपर्करहितानि (वितता) विस्तृतानि तेजांसि (वसानम्) आच्छादयन्तम् (प्रियम्) (मित्रस्य) सुहृदः (वरुणस्य) श्रेष्ठस्य (धाम) सुखधारणसाधकं गृहम् ॥ ४ ॥
भावार्थः
मनुष्या यथा रात्रीणां निहन्तारं स्वप्रकाशविस्तारकसूर्यं दृष्ट्वा कार्य्याणि साध्नुवन्ति तथाऽविद्यान्धकारनाशकविद्याप्रकाशक-माप्ताऽध्यापकोपदेशकसङ्गं प्राप्य क्लेशान् हन्युः ॥ ४ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ।
पदार्थ
हे मनुष्यो ! जैसे हम लोग (कनीनाम्) कामना करती हुई प्रजाओं की (जारम्) अवस्था हरनेवाले (प्रयन्तम्) अच्छे यत्न करते (उपनिपद्यमानम्) समीप प्राप्त होते (अनवपृग्णा) सम्बन्धरहित अर्थात् अलग के पदार्थ जो (वितता) विथरे हैं, उनको (वसानम्) आच्छादन करते अर्थात् अपने प्रकाश से प्रकाशित करते हुए सूर्य के समान (मित्रस्य) मित्र वा (वरुणस्य) श्रेष्ठ विद्वान् के (इत्) ही (प्रियम्) प्रिय (धाम) सुखसाधक घर को (परि, पश्यामसि) देखते हैं इससे विरुद्ध (न) न हों वैसे तुम भी इसको प्राप्त होओ ॥ ४ ॥
भावार्थ
मनुष्य लोग जैसे रात्रियों के निहन्ता अपने प्रकाश का विस्तार करते हुए सूर्य को देख कर कार्य्यों को सिद्ध करते हैं, वैसे अविद्यान्धकार का नाश और विद्या का प्रकाश करनेवाले आप्त अध्यापक और उपदेशक के सङ्ग को पाकर क्लेशों को नष्ट करें ॥ ४ ॥
विषय
सूर्य का पाठ
पदार्थ
१. उषाकाल 'कनी' है । 'कन दीप्तौ' = यह चमकती है। सूर्य प्राची में आगे बढ़ता है और उषा समाप्त हो जाती है, अतः (कनीनाम्) = इन चमकनेवाली उषाओं के (जारम्) = जीर्ण करनेवाले सूर्य को (प्रयन्तम् इत्) = गति करता हुआ ही (परि पश्यामसि) = सब ओर देखते हैं, (उपनिपद्यमानं न) = इस सूर्य को कभी भी रुकता हुआ नहीं देखते। यह चलता ही है। 'सरतीति सूर्यः'। यह चलता है, इसीलिए चमकता है। सूर्य (अनवपृग्णा:) = चारों ओर फैलती हुई [spreading all around] वितता:- किरणों को वसानम्-धारण कर रहा है। सूर्य चलता हुआ थकता नहीं । २. बस, सूर्य से हमें भी यही पाठ पढ़ना है कि हम निरन्तर गतिशील हों, क्रिया करते हुए कभी रुक न जाएँ । ऐसा करने पर हम भी सूर्य की भाँति चमक उठेंगे। जो भी पति-पत्नी सूर्य से यह पाठ पढ़ते हैं उन (मित्रस्य वरुणस्य) = पति-पत्नी का (धाम) = गृह (प्रियम्) = अत्यन्त प्रिय होता है। यह घर नीरोगता, निर्मलता व बुद्धि की तीव्रतावाला होकर बहुत ही शोभावाला होता है ।
भावार्थ
भावार्थ- सूर्य से गतिशीलता का पाठ पढ़नेवाले पति-पत्नी अपने घर को बड़ा शोभावाला बनाते हैं। इस घर के निवासी सूर्य की भाँति चमकते हैं।
विषय
वेदाभ्यास, ज्ञान प्राप्ति का उपदेश, पति पत्नी के प्रति उत्तम उपदेश ।
भावार्थ
हम लोग ( कनीनां ) उषा के समान कमनीय, दीप्तिमती, कन्याओं के ( जारं ) प्रथम कौमारभाव की हानि करने वाले एवं उसके साथ जीवन भर रहके उसकी जीवनसमाप्ति करने वाले ( प्रियं ) उसके प्रिय पुरुष पतिको हम लोग सदा ( प्रयन्तम् ) सूर्य के तुल्य उत्तम मार्ग से जाते हुए ( परि पश्यामसि ) देखें । और उसको हम ( उपनिपद्यमानं ) कभी नीचे मार्ग से जाते हुए या कभी संकट या विपत्ति में पड़ा ( न परिपश्यामसि ) न देखें । [ अथवा नश्चार्यः ] या, हम उसे सदा ( उपनिद्यमानं परिपश्यामसि ) उसको उनके समीप रहते हुए देखें, विरही न देखें । और सदा हम उसे ( अनवपृग्णा ) विरले विरले खुले हवादार, शरीर के सुखकारी वस्त्रों को धारते और ( वितता ) विस्तृत वस्त्रों और गृहों में ( वसानं ) रहते हुए देखें । वही ( मित्रस्य वरुणस्य ) स्नेहशील रक्षक और वरण करने योग्य श्रेष्ठ पुरुषों का उत्तम ( धाम ) तेज, वैभव और धारण सामर्थ्य का स्वरूप या उत्तम पद है ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
दीर्घतमा ऋषिः ॥ मित्रावरुणौ देवते ॥ छन्दः– १, २, ४, ५, ६ त्रिष्टुप् । ३ विराट् त्रिष्टुप् । ७ निचृत् त्रिष्टुप् ॥ सप्तर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
रात्रीचा नाश करून प्रकाश प्रसृत करणाऱ्या सूर्याला पाहून माणसे कार्य सिद्ध करतात तसे अविद्या अंधकाराचा नाश व विद्येचा प्रकाश करणाऱ्या आप्त, अध्यापक व उपदेशकाची संगती करून क्लेश नाहीसे करावेत. ॥ ४ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Just as we see the sun, lover of the maidenly dawns, gather up the lights and moving on, never resting, so do we see the scholar, treasure-home of knowledge, lover of rising generations, moving on in his pursuit of knowledge, never resting and rusting, but expanding far and wide the light of knowledge, wherein lies the favourite love of Lord Supreme, lord of light as well as of the bottomless deep of annihilation.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The guidelines from the teachers and preachers to a common man.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
We here behold the sun. Gradually, it cuts the span of life with the growth of age. It always endeavors to give light to the world. It also throws vast splendors. We behold likewise the faces of beloved adored and friendly teachers and the noble and most acceptable preachers. Undoubtedly, it is the source of joy to us, as we never go against their teachings. You should also emulate it.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
The men accomplish their works in the light of the sun. It also dispels the darkness of the night and is illuminator. Likewise, having lived in the association of absolutely truthful teachers and preachers, people should end their all miseries.
Foot Notes
( कनीनाम् ) कामयमानानां (प्रजानाम् ) = Of the people who desire him. (जारम्) वयोहानिकारकम् = Diminishing the age. The word जार has been used for the sun allegorically which is derived from जुष् वयाहोनौ. As the sun rises, each new day diminishes or reduces the age of the man concerned, as a well known poet Bharírihari has put it. आदित्यस्य गतागतैरहरहः संक्षीयते जीवितम् ।
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