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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 156 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 156/ मन्त्र 3
    ऋषिः - दीर्घतमा औचथ्यः देवता - विष्णुः छन्दः - निचृज्जगती स्वरः - निषादः

    तमु॑ स्तोतारः पू॒र्व्यं यथा॑ वि॒द ऋ॒तस्य॒ गर्भं॑ ज॒नुषा॑ पिपर्तन। आस्य॑ जा॒नन्तो॒ नाम॑ चिद्विवक्तन म॒हस्ते॑ विष्णो सुम॒तिं भ॑जामहे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तम् । ऊँ॒ इति॑ । स्तो॒ता॒रः॒ । पू॒र्व्यम् । यथा॑ । वि॒द । ऋ॒तस्य॑ । गर्भ॑म् । ज॒नुषा॑ । पि॒प॒र्त॒न॒ । आ अ॒स्य॒ । जा॒नन्तः॑ । नाम॑ । चि॒त् । वि॒व॒क्त॒न॒ । म॒हः । ते॒ । वि॒ष्णो॒ इति॑ । सु॒ऽम॒तिम् । भ॒जा॒म॒हे॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तमु स्तोतारः पूर्व्यं यथा विद ऋतस्य गर्भं जनुषा पिपर्तन। आस्य जानन्तो नाम चिद्विवक्तन महस्ते विष्णो सुमतिं भजामहे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तम्। ऊँ इति। स्तोतारः। पूर्व्यम्। यथा। विद। ऋतस्य। गर्भम्। जनुषा। पिपर्तन। आ अस्य। जानन्तः। नाम। चित्। विवक्तन। महः। ते। विष्णो इति। सुऽमतिम्। भजामहे ॥ १.१५६.३

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 156; मन्त्र » 3
    अष्टक » 2; अध्याय » 2; वर्ग » 26; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ।

    अन्वयः

    हे स्तोतारो यथा यूयं जनुषा पूर्व्यं तं विद। ऋतस्य गर्भमु पिपर्त्तन। अस्य चिन्नामाजानन्तो विवक्तन तथा वयमपि विजानीमः पिपृम च। हे विष्णो वयं यस्य ते महस्सुमतिं भजामहे स भवान् नोऽस्मान् सुशिक्षस्व ॥ ३ ॥

    पदार्थः

    (तम्) तमाप्तमध्यापकं विद्वांसम् (उ) वितर्के (स्तोतारः) सर्वविद्यास्तावकाः (पूर्व्यम्) पूर्वैः कृतम् (यथा) (विद) विजानीत (ऋतस्य) सत्यस्य (गर्भम्) विद्याजं बोधम् (जनुषा) विद्याजन्मना (पिपर्त्तन) पिपृत विद्याभिः सेवया वा पूर्णं कुरुत (आ) (अस्य) (जानन्तः) (नाम) प्रसिद्धिम् (चित्) अपि (विवक्तन) वदतोपदिशत (महः) महतीम् (ते) तव (विष्णो) सकलविद्याव्याप्त (सुमतिम्) शोभनां प्रज्ञाम् (भजामहे) सेवामहे ॥ ३ ॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः। मनुष्या विद्यावृद्धयेऽनूचानमध्यापकं प्राप्य सुसेव्य सत्या विद्याः प्रयत्नेन गृहीत्वा पूर्णा विद्वांसः स्युः ॥ ३ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    हे (स्तोतारः) समस्त विद्याओं की स्तुति करनेवाले सज्जनो ! (यथा) जैसे तुम (जनुषा) विद्या जन्म से (पूर्व्यम्) पूर्व विद्वानों ने किये हुए (तम्) उस आप्त अध्यापक विद्वान् को (विद) जानो और (ऋतस्य) सत्य व्यवहार के (गर्भम्) विद्यासम्बन्धी बोध को (उ) तर्क-वितर्क से (पिपर्त्तन) पालो वा विद्याओं से और सेवा से पूरा करो। तथा (अस्य) इसका (चित्) भी (नाम) नाम (आ, जानन्तः) अच्छे प्रकार जानते हुए (विवक्तन) कहो, उपदेश करो वैसे हम लोग भी जानें, पालें और पूरा करें। हे (विष्णो) सकल विद्याओं में व्याप्त विद्वान् ! हम जिन (ते) आपसे (महः) महती (सुमतिम्) सुन्दर बुद्धि को (भजामहे) भजते सेवते हैं सो आप हम लोगों को उत्तम शिक्षा देवें ॥ ३ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। मनुष्य विद्या की वृद्धि के लिये शास्त्रवक्ता अध्यापक को पाकर और उसकी उत्तम सेवा कर सत्यविद्याओं को अच्छे यत्न से ग्रहण करके पूरे विद्वान् हों ॥ ३ ॥

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    विषय

    तज्जपः, तदर्थभावनम्

    पदार्थ

    १. हे (स्तोतारः) = स्तवन करनेवाले स्तोताओ! (तं पूर्व्यम्) = उस सृष्टि से पहले होनेवाले (ऋतस्य गर्भम्) = ऋत व सत्य के धारण करनेवाले, ऋत व सत्य को उजागर अथवा प्रकट करनेवाले प्रभु को (उ) = ही (यथा विद) = जैसे जानते हो, उसी प्रकार (जनुषा) = अपने में सद्गुणों के प्रादुर्भाव से (पिपर्तन) = उस प्रभु को अपने में पूरण करो। जितना जितना हम प्रभु को जानते हैं, उतना उतना ही उसका, उसकी दिव्यता का अपने में पूरण करनेवाले होते हैं । २. इस प्रकार (अस्य) = इस प्रभु के नाम= 'ओम्'-रूप निज नाम को (चित्) = ही (आ जानन्तः) = जानते हुए अर्थात् अर्थज्ञानपूर्वक (विवक्तन) = उच्चारण करो। 'तस्य वाचकः प्रणवः, तज्जपस्तदर्थभावनम्'। ३. हे (विष्णोः) = सर्वव्यापक प्रभो! आपका स्मरण करते हुए हम (ते) = आपके (महः) = तेज को तथा (सुमतिम्) = कल्याणी मति को (भजामहे) = अपने में धारण करनेवाले हों ।

    भावार्थ

    भावार्थ - जितना-जितना हम प्रभु को जानते हैं, उतना उतना उसे धारण करनेवाले बनते हैं। प्रभु का नाम स्मरण करते हुए हम तेज व सुमति को प्राप्त करते हैं ।

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    विषय

    उपदेष्टा विद्वान् के कर्त्तव्य और परमेश्वर का वर्णन, इनका सूर्यवत् कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    हे (स्तोतारः ) हे यथार्थ गुणों का उपदेश करने वाले विद्वान् पुरुषो ! आप लोग ( तम् पूर्व्यम् ) उस पूर्व के विद्वानों द्वारा विद्या के योग्य पुरुष को ( यथा ) जिस प्रकार यथाविधि ( विद ) प्राप्त करो और ज्ञान लाभ कराओ । और ( ऋतस्य ) ज्ञानेश्वर्य को ( गर्भम् ) अपने में धारण करने वाले उसका हे विद्यावान् पुरुषो ! ( जनुषा ) विद्या द्वारा नवीन जन्म प्राप्त कराके यज्ञोपवीत आदि द्वारा ( पिपर्त्तन ) पालन और विद्या से पूर्ण करो । ( अस्य ) इसके ( नाम चित् ) उत्तम नाम को भी ( जानन्तः ) जानते हुए ( विवक्तन ) इसे विशेष रूप से उपदेश करो । हे ( विष्णो ) विद्याओं में व्यापक विद्वन् ! हम ( ते ) तेरे ( महः सुमतिम् ) महान् उत्तम ज्ञान को ( यजामहे ) प्राप्त करें । (२) परमेश्वर पक्ष में—स्तुतिकर्त्ता जन सबसे पूर्व विद्यमान आदि पुरुष को यथावत् जानें । समस्त जगत् को अपने में धारण करने वाले उसके व्रत को इस जन्म में ही पालन करें, उसकी उपासना करें । इसका नाम भी ज्ञान पूर्वक लिया करें । हे ( विष्णो ) व्यापक प्रभो ! हम तेरे महान् पूज्य उत्तम ज्ञान का सेवन करें ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    दीर्घतमा ऋषिः । विष्णुर्देवता ॥ छन्दः- निचृत् त्रिष्टुप् । २ विराट् त्रिष्टुप् । ५ स्वराट् त्रिष्टुप् । निचृज्जगती । ४ जगती ॥ पञ्चर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे. माणसांनी विद्यावृद्धीसाठी शास्त्रवेत्त्या अध्यापकाची उत्तम सेवा करून सत्यविद्या प्रयत्नपूर्वक ग्रहण कराव्यात व पूर्ण विद्वान बनावे. ॥ ३ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Admirers and worshippers of the ancient and eternal lord of knowledge, Vishnu, as much as you know the lord and his knowledge, please augment and advance that body of knowledge with your own growth and contribution, a process as hard as rebirth though it is.$And knowing the lord and his knowledge, speak of the knowledge to the seekers in full confidence. O Vishnu, lord eternal and master of universal knowledge, all hail to you! We offer homage and worship to you in honour of your knowledge and wisdom.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    One should seek knowledge voraciously.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O admirers of all knowledge! you should know through your second birth (in the form of Veda Rambha Sansakara) that absolutely truthful and experienced teacher is going to teach you. You should seek and perfect the knowledge of truth (like a womb receives and brings up a child. You are aware of his high reputation and greatness.) Receive knowledge from him and disseminate it to others. O well-versed in all sciences! as we seek and distribute the good intellect or noble advice of our teachers, you should also act likewise.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Men should become great scholars by seeking the development of their knowledge. A teacher can become well-versed in the Vedas, only if he serves his teachers and receives from him the knowledge of all sciences.

    Foot Notes

    (गर्भम् ) विद्याजं बोधम् = Knowledge. (विष्णो) सकलविद्याव्याप्त = Pervading in all or well-versed in all sciences.

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